Advocatetanmoy Law Library

Legal Database and Encyclopedia

Home » Hindi Page » ईश्वरप्रणिधानाद्वा( 23) Iswar Pranidhanad Ba-पंतजलि: योगसूत्र- Explanation by OSHO

ईश्वरप्रणिधानाद्वा( 23) Iswar Pranidhanad Ba-पंतजलि: योगसूत्र- Explanation by OSHO

 तुम बीज हो, और परमात्मा प्रस्‍फुटित अभिव्यक्ति है। तुम बीज हो और परमात्मा वास्तविकता है। तुम हो संभावना; वह वास्तविक है। परमात्मा तुम्हारी नियति है, और तुम कई जन्मों से अपनी नियति पास रखे हुए हो बिना उसकी ओर देखे। क्योंकि तुम्हारी आंखें कहीं भविष्य में लगी होती हैं; वे वर्तमान को नहीं देखतीं। यदि तुम देखने को राजी हो तो यहीं, अभी, हर चीज वैसी है जैसी होनी चाहिए। किसी चीज की जरूरत नहीं। अस्तित्व संपूर्ण है हर क्षण। यह कभी अपूर्ण हुआ ही नहीं; यह हो सकता नहीं। यदि यह अपूर्ण होता, तो यह संपूर्ण कैसे हो सकेगा? फिर कौन इसे संपूर्ण बनायेगा?

संकल्प के मार्ग पर व्यक्ति को अहंकार के प्रति बहुत—बहुत सजग होना होता है, क्योंकि अहंकार तो अवश्य ही चला आयेगा। यदि तुम अहंकार पर ध्यान दे सको, यदि तुम अहंकार संचित न करो, तो समर्पण की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि यदि अहंकार नहीं रहता, तो समर्पण करने को कुछ है नहीं। इसे बहुत—बहुत गहरे रूप से समझ लेना है। और जब तुम समझने की कोशिश कर रहे हो—पंतजलि को समझने की—तो यह एक बुनियादी बात है।

Patanjali Yoga Sutra

दिनांक 3 जनवरी, 1975;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

ईश्वरप्रणिधानाद्वा।। 23।।

सफलता उन्हें भी उपलब्ध होती है जो ईश्वर के प्रति समर्पित होते है।

वह सूत्र है : ईश्वरप्रणिधानाद्वा। सफलता उन्हें भी उपलब्ध होती है जो ईश्वर के प्रति समर्पित होते हैं।

 यह मात्र एक टिप्पणी है। सिर्फ यह सूचित करने के लिए दी गयी है कि दूसरा मार्ग भी है वहां। योग संकल्प का मार्ग है। प्रयास, जो प्रगाढ़ है, वास्तविक है, समग्र है। तुम्हारी समग्रता इस तक ले आओ। लेकिन पतंजलि जागरूक हैं। और जो जानते हैं वे सब दूसरे मार्ग के प्रति जागरूक होते हैं। और पतंजलि बहुत ध्यान देने वाले विचारशील हैं। वे बहुत वैज्ञानिक मन के हैं : वे एक भी बचाव का रास्ता नहीं छोड़ेंगे। लेकिन वह दूसरा मार्ग उनका मार्ग नहीं है, तो वे मात्र एक टिप्पणी दे देते हैं यह याद दिलाने को ही कि दूसरा मार्ग है ‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा। सफलता उन्हें भी उपलब्ध होती है जो ईश्वर के प्रति समर्पित होते हैं।’

चाहे मार्ग प्रयास का हो या समर्पण का, बुनियादी बात एक ही है—समग्रता की जरूरत होती है। मार्ग भेद रखते हैं, लेकिन वे पूर्णतया विभिन्न नहीं हो सकते। उनका प्रकार, उनका स्वरूप, उनकी दिशाएं अलग हो सकती हैं, लेकिन उनका भीतरी अर्थ और महत्व एक ही रहता है क्योंकि दोनों दिव्यता की ओर ले जाते हैं। प्रयास में तुम्हारी समग्रता ही की जरूरत है। इसलिए मेरे देखे केवल एक मार्ग है, और वह वही है जिसमें तुम्हारी समग्रता तुम्हें ले आनी होती है।

चाहे तुम इसे प्रयास द्वारा लाओ—जो है योग—यह तुम पर निर्भर है; या चाहे तुम इसे समर्पण द्वारा लाओ। समर्पण—स्वयं को ढीला छोड़ना; यह भी तुम पर निर्भर है। लेकिन हमेशा ध्यान रहे कि समग्रता की जरूरत होगी; तुम्हें संपूर्णतया स्वयं को दांव पर लगा देना होगा। यह एक दाव है, अशांत के साथ एक जुआ। और कोई नहीं कह सकता: यह कब घटेगा, कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता। कोई तुम्हें गारंटी नहीं दे सकता। तुम जुआ खेलते हो, शायद तुम जीत जाओ, शायद तुम न जीतो। न जीतने की संभावना सदा वहां होती है क्योंकि यह एक बहुत जटिल घटना है। यह उतनी सरल नहीं जितनी कि दिखती है। लेकिन यदि तुम जुआ खेलते जाते हो, तो एक दिन यह घटित होना ही है।

यदि तुम एक बार चूक जाओ तो निराश मत होना, क्योंकि बुद्ध को भी बहुत बार चूकना होता है। यदि तुम चूकते हो, तो बस फिर जुट जाना और जोखम उठा लेना। कभी, किसी अज्ञात ढंग से सारा अस्तित्व आ पहुंचता है तुम्हारी सहायता देने को। किसी समय, किसी अज्ञात ढंग से, तुमने एकदम ठीक समय लक्ष्य साधा होता है जब द्वार खुला था। लेकिन तुम्हें बहुत बार लक्ष्य पर चोट करनी होती है। तुम्हारे चैतन्य का तीर तुम्हें फेंकते चले जाना होता है। परिणाम की चिंता मत लेना। बहुत घना अंधेरा है और लक्ष्य निर्धारित नहीं है, यह परिवर्तित होता रहता है। इसलिए तुम्हें तुम्हारा तीर अंधेरे में फेंकते जाना होता है। कई बार चूकोगे तुम, और मैं तुमसे यह कहता हूं ताकि तुम निराश न हो जाओ। हर कोई चूकता है बहुत बार, यह बात ही कुछ ऐसी है। लेकिन यदि तुम आगे बढ़ते जाते हो और बढ़ते जाते हो और बढ़ते जाते हो, बिना निराश हुए, तो घटना घटेगी। यह सदा घटी है। इसीलिए असीम धैर्य की जरूरत है।

परमात्मा के प्रति समर्पण है क्या? कैसे कर सकते हो तुम समर्पण? कैसे संभव होगा समर्पण? वह भी संभव हो जाता है यदि तुम बहुत प्रयत्न करते हो, और चूकते चले जाते हो, और फिर भी बहुत प्रयास करते हो। तुम स्वयं पर निर्भर करते हो। प्रयास स्वयं पर निर्भर करता है। यह संकल्प—शक्ति पर आधारित होता है—संकल्प के मार्ग पर। तुम स्वयं पर निर्भर करते हो। तुम असफल और असफल और असफल होते हो। तुम फिर खड़े होते हो, तुम गिरते हो, तुम फिर खड़े होते हो, और तुम फिर चलना शुरू कर देते हो। और फिर एक क्षण आता है, तुम्हारे बहुत चूकने और असफल होने के बाद, जब तुम समझ जाते हो कि तुम्हारा प्रयास ही इसका कारण है क्योंकि तुम्हारा प्रयास तुम्हारा अहंकार बन चुका है।

संकल्प के मार्ग पर यही समस्‍या है। क्योंकि वह व्यक्ति जो संकल्प के मार्ग पर कार्य कर रहा है, प्रयास कर रहा है, विधियों का, तरकीबों का प्रयोग कर रहा है, यह कर रहा है, वह कर रहा है, वह एक निश्चित बोध एकत्र कर लेने को विवश होता है कि मैं हूं—मैं श्रेष्ठ हूं विशिष्ट हूं असाधारण हूं। मैं इतना—उतना सब कर रहा हूं—तपस्या, उपवास, साधना कर रहा हूं। मैंने इतना अधिक कर लिया।

संकल्प के मार्ग पर व्यक्ति को अहंकार के प्रति बहुत—बहुत सजग होना होता है, क्योंकि अहंकार तो अवश्य ही चला आयेगा। यदि तुम अहंकार पर ध्यान दे सको, यदि तुम अहंकार संचित न करो, तो समर्पण की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि यदि अहंकार नहीं रहता, तो समर्पण करने को कुछ है नहीं। इसे बहुत—बहुत गहरे रूप से समझ लेना है। और जब तुम समझने की कोशिश कर रहे हो—पंतजलि को समझने की—तो यह एक बुनियादी बात है।

यदि तुम बहुत वर्ष सतत प्रयास करते हो, तो अहंकार खड़ा होगा ही। तुम्हें जागरूक होना होता है। तुम्हें काम करना है, तुम्हें सारे प्रयत्न करने हैं, लेकिन अहंकार इकट्ठा मत करो। फिर कोई जरूरत नहीं रहती समर्पण करने की। तुम समर्पण किये बिना लक्ष्य साध सकते हो। तब कोई जरूरत नहीं क्योंकि बीमारी रही नहीं।

यदि अहंकार होता है, तो समर्पण करने की आवश्यकता उठ खड़ी होती है। इसीलिए पतंजलि प्रगाढ़ता, सच्चाई, समग्र प्रयास पर बोलने के पश्चात अकस्मात वे कहते हैं, ‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा—सफलता उन्हें भी उपलब्ध होती है जो ईश्वर के प्रति समर्पित होते हैं।’

यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम निरंतर असफल हो रहे हो, तो ध्यान रखना कि असफलता परमात्मा के कारण नहीं है। असफलता घट रही है तुम्हारे अहंकार के कारण। वहां, जहां से बाण फेंका जा रहा है, तुम्हारे अस्तित्व का स्रोत, वहां कुछ घट रहा है—एक भटकन। अहंकार वहां एकत्रित हो रहा है। तब केवल एक संभावना रहती है—इसे समर्पित कर देना। तुम इसमें इतने समग्र रूप से असफल हो चुके हो, कई ढंग से। तुमने यह किया, वह किया, तुमने कुछ न कुछ करने की कोशिश की, और तुम असफल और असफल और असफल हुए। जब निराशा गहनतम हो जाती है और तुम नहीं समझ सकते कि क्या करना है, तो पतंजलि कहते हैं, ‘ अब ईश्वर को समर्पित हो जाओ।’

इस अर्थ में पतंजलि बहुत अनूठे हैं। वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते; वे आस्तिक नहीं हैं। ईश्वर भी एक उपाय है। पतंजलि किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करते; वे नहीं विश्वास करते कि कोई ईश्वर है। नहीं, वे कहते हैं, ‘ईश्वर एक विधि है। वे जो असफल होते हैं, उनके लिए यह अंतिम विधि है।’ यदि तुम इसमें भी चूक जाते हो, तो कोई मार्ग नहीं। पतंजलि कहते हैं कि ईश्वर है या नहीं, सवाल यह नहीं है। यह तो बिलकुल ही कोई विवाद का विषय नहीं। सार यह है कि ईश्वर परिकल्पित है। बिना ईश्वर के समर्पण करना कठिन होगा। तुम पूछोगे, ‘किसे करें समर्पण?’

अत: ईश्वर एक परिकल्पित बिंदु होता है मात्र तुम्हें समर्पण में सहायता देने को। जब तुम समर्पण कर चुके, तुम जानोगे कि कोई ईश्वर नहीं। लेकिन जब तुम समर्पण कर चुके होते हो और जब तुमने जान लिया होता है तब ऐसा होता है। पतंजलि के लिए ईश्वर भी तुम्हारी सहायता करने वाली एक परिकल्पना है। यह एक झूठ है। इसीलिए मैंने तुमसे कहा था कि पतंजलि एक चालाक गुरु हैं। यह है मात्र एक सहायता। बुनियादी बात समर्पण है, ईश्वर नहीं। और तुम्हें इस भेद को ध्यान में रख लेना है। क्योंकि ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि ईश्वर बुनियादी बात है; कि ईश्वर है, इसलिए तुम समर्पण करते हो।

पतंजलि कहते हैं कि तुम्हें समर्पण करना है इसलिए ईश्वर को मान लो। ईश्वर मान ली गयी बात है। जब तुमने समर्पण कर दिया हो, तुम हंसोगे। ईश्वर है नहीं।

लेकिन एक बात और—ईश्वर है, पर एक ईश्वर नहीं। ईश्वरों की बहुलता है क्योंकि जब कभी तुम समर्पण करते हो, तुम भगवान हो जाते हो। अत: पतंजलि के ईश्वर को यहूदीवादी—ईसाइयो के ईश्वर के साथ एक मत समझ लेना। पतंजलि कहते हैं कि ईश्वरत्व प्रत्येक प्राणी की संभावना है। व्यक्ति ईश्वर के बीज की भांति है—प्रत्येक व्यक्ति। और जब बीज विकसित होता है, जब यह परिपूर्णता तक पहुंचता है, तो बीज ईश्वर हो चुका होता है। तो प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक प्राणी अंतत: ईश्वर होगा।

‘परमात्मा ‘ का अर्थ है मात्र परम पराकाष्ठा, परम विकास। ईश्वर नहीं है, लेकिन बहुत सारे ईश्वर हैं; अनंत भगवान हैं। यह एक समग्रतया भिन्न अवधारणा है। यदि तुम मुसलमानों से पूछो, वे कहेंगे, केवल एक ही है ईश्वर। यदि तुम ईसाइयों से पूछो, वे कहेंगे, केवल एक ईश्वर है। लेकिन पतंजलि अधिक वैज्ञानिक है। वे कहते है कि ईश्वर एक संभावना है। हर कोई यह संभावना हृदय में लिये रहता है। प्रत्येक व्यक्ति बीज ही है, ईश्वर होने की क्षमता है, संभाव्यता है। जब तुम उच्चतम तक पहुंचते हो जिसके पार कुछ नहीं बना रहता, तो तुम भगवान हो जाते हो। तुमसे पहले बहुत पहुंच चुके है, बहुत पहुंचेंगे, और बहुत पहुंच रहे होंगे तुम्हारे बाद।

अंततः प्रत्येक भगवान हो जाता है, क्योंकि हर कोई बीज रूप से भगवान है। अनंत भगवान होते हैं। इसीलिए ईसाइयों के लिए इसे समझना कठिन हो जाता है। तुम राम को भगवान कहते हो, तुम कृष्ण को भगवान कहते हो, तुम महावीर को भगवान कहते हो। रजनीश को भी तुम कह देते हो भगवान।

एक ईसाई के लिए असंभव हो जाता है इसे समझना। क्या कर रहे हो तुम? उनके लिए एक ही भगवान का अस्तित्व है—जिसने सृष्टि का निर्माण किया। पतंजलि के अनुसार तो किसी ने सृष्टि का निर्माण नहीं किया। लाखों भगवान अस्तित्व रखते हैं और हर कोई भगवान होने के मार्ग पर ही है। चाहे तुम इसे जानो या न जानो, तुम अपने अंतर—गर्भ के भीतर भगवान संभाले रहते हो। और शायद तुम बहुत बार चूक जाओ, लेकिन अंततः कैसे चूक सकते हो तुम? यदि तुम इसे अपने भीतर लिये रहते हो, किसी न किसी दिन बीज विकसित होना ही है। तुम इसे बिलकुल नहीं चूक सकते। असंभव!

यह एक समग्र रूप से भिन्न अवधारणा है। ईसाइयों का ईश्वर बहुत तानाशाह मालूम पड़ता है, सारे अस्तित्व पर शासन करता है! पतंजलि अधिक लोकतांत्रिक हैं। उनके साथ कोई शासक नहीं है, कोई तानाशाह नहीं, कोई स्टालिन नहीं, कोई जार सिंहासन के शिखर पर नहीं बैठा जिसके एक ओर उसका एकमात्र जन्मा बेटा क्राइस्ट हो और चारों तरफ उनके पट्टशिष्य हों। यह बड़ी नासमझी है। सारी धारणा ऐसी है जैसे यह सम्राट के सिंहासन पर बैठने की अवधारणा से निर्मित हुई हो! नहीं, पतंजलि नितांत लोकतांत्रिक हैं। वे कहते है कि भगवत्ता हर किसी की गुणवत्ता है। तुम इसे लिये हुए हो, इसे इसकी समग्रता तक ले आना तुम पर निर्भर है। यदि तुम ऐसा नहीं चाहते तो यह भी तुम पर निर्भर करता है।

संसार के ऊपर कोई नहीं बैठा है शासक की तरह; कोई तुम्हें जबरदस्ती उलन्न नहीं कर रहा या तुम्हें निर्मित नहीं कर रहा। स्वतंत्रता संपूर्ण है। तुम पाप कर सकते हो स्वतंत्रता के कारण, तुम दूर हट सकते हो स्वतंत्रता के कारण। तुम स्वतंत्रता के कारण पीड़ा भोगते हो। और जब तुम इसे समझ लेते हो तो पीड़ा भोगने की कोई जरूरत नहीं रहती, तुम लौट सकते हो और वह भी स्वतंत्रता के कारण ही। कोई तुम्हें वापस नहीं ला रहा और कोई कयामत का दिन नहीं आने वाला। तुम्हें जांचने को सिवाय तुम्हारे, अस्तित्व में और कोई नहीं। तुम कर्त्ता हो, तुम निर्णायक हो। तुम्हीं हो अपराधी, तुम्हीं हो कानून। तुम्हीं हो सब कुछ। तुम लघु अस्तित्व हो।

 ईश्वर सर्वोत्‍कृष्ट है। वह दिव्य चेतना की वैयक्तिक इकाई है। वह जीवन के दुखों से तथा कर्म और उसके परिणामों से अछूता है।

 ईश्वर चैतन्य की अवस्था है। वह वस्तुत: कोई व्यक्ति नहीं, लेकिन वह निजता, अस्मिता है। अत: तुम्हें व्यक्तित्व और निजता के बीच के अन्तर को समझना होगा। व्यक्तित्व है बाह्य सतह। जैसे तुम दूसरों को दिखते हो वह तुम्हारा व्यक्तित्व होता है। तुम कहते हो, ‘एक अच्छा व्यक्तित्व, एक सुंदर व्यक्तित्व, एक कुरूप व्यक्तित्व।’ यह जैसे तुम दूसरों को दिखायी पड़ते हो वैसा होता है। तुम्हारा व्यक्तित्व तुम्हारे बारे में दूसरों की राय है, निर्णय है। यदि तुम इस धरती पर अकेले रह जाओ, तो क्या तुम्हारा कोई व्यक्तित्व रह जायेगा? कोई व्यक्तित्व नहीं रहेगा। क्योंकि कौन कहेगा कि तुम सुंदर हो, और कौन कहेगा तुम मूर्ख हो, और कौन कहेगा तुम लोगों के महान नेता हो? कोई होगा ही नहीं तुम्हारे बारे में कुछ कहने को। कोई राय न हो, तो तुम्हारे पास कोई व्यक्तित्व न होगा।

व्यक्तित्व के लिए जो ‘पर्सनलिटी’ शब्द है यह पीक शब्द ‘पर्सोना’ से आया है। पीक नाटकों में, अभिनेताओं को मुखौटों का प्रयोग करना पड़ता था। वे मुखौटे कहलाते थे पर्सोना। पर्सनलिटी शब्द पर्सोना से आया है। वह चेहरा, जिसे तुम ओढ़े रखते हो। जब तुम पत्नी की ओर देखते हो और मुसकुराते हो, यह है—पर्सनलिटी—पर्सोना। तुम मुसकुराना चाहते नहीं, लेकिन तुम्हें मुसकुराना पड़ता है। एक अतिथि आता है और तुम उसका स्वागत करते हो, लेकिन भीतर गहरे में तुम कभी नहीं चाहते थे कि वह तुम्हारे यहां आये। तुम परेशान होते हो। तुम सोचते हो, ‘ अब क्या करूं इस आदमी का?’ लेकिन तुम मुसकुरा रहे होते हो और तुम उसका स्वागत कर रहे होते हो और तुम कह रहे होते हो, ‘मुझे कितनी खुशी हुई कि तुम आये।’

व्यक्तित्व वह होता है जिसे तुम प्रस्तुत करते हो; यह एक ऊपरी रूप होता है, एक मुखौटा। लेकिन अगर तुम्हारे बाथरूम में कोई नहीं हो, तो जब तक कि तुम दर्पण में न देख लो तब तक तुम्हारा कोई व्यक्तित्व नहीं होता। तब फौरन व्यक्तित्व चला आता है क्योंकि तुम स्वयं ‘दूसरे’ का कार्य करना शुरू कर देते हो और राय देने लगते हो। तुम चेहरे को देखते हो और कह देते हो, ‘सुंदर।’ अब तुम बंटे हुए हो। अब तुम दो हो। तुम स्वयं के बारे में राय दे रहे हो। लेकिन बाथरूम में जब कोई नहीं होता, जब तुम बिलकुल निर्भय होते हो और आश्वस्त होते हो कि कोई नहीं देख रहा दरवाजे की कुंजी की सुराख में से, तुम व्यक्तित्व गिरा देते हो। क्योंकि अगर कोई सूराख में से देख रहा होता, तो फिर से व्यक्तित्व आ पहुंचता है।

केवल बाथरूम में तुम व्यक्तित्व गिरा देते हो। इसलिए बाथरूम इतना स्‍फूर्तिदायक होता है। तुम स्नान करके बाहर आते हो—सुंदर, ताजे! कोई बाह्य व्यक्तित्व न रहा; तुम एक निजता हो जाते हो। निजता वह है जो तुम हो, व्यक्तित्व वह होता है जैसा तुम अपने को दिखाते हो। व्यक्तित्व तुम्हारा बाहरी चेहरा है; निजता तुम्हारा अस्तित्व है। पतंजलि की धारणा में, ईश्वर का कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह एक वैयक्तिक इकाई है, एक निजता

यदि तुम विकसित होते हो तो कुछ समय बाद दूसरों से आये मूल्यांकन बचकाने हो जाते हैं। तुम उनकी परवाह नहीं करते। जो वे कहते हैं, वह निरर्थक होता है। वे जो कहते हैं, वह कुछ अर्थ नहीं रखता। जो तुम हो, जो तुम होते हो, यही बात अर्थ रखती है। इससे कुछ नहीं होता कि वे कह दें ‘सुंदर।’ यह व्यर्थ है। यदि तुम सुंदर हो तो असली बात है। जो वे कहते हैं, वह असंगत होता है। जो तुम हो—वास्तविक तुम, प्रामाणिक तुम, वही है निजता।

जब तुम बाह्य व्यक्तित्व को गिरा देते हो तब तुम संन्यासी हो जाते हो। जब तुम व्यक्तित्व को त्याग देते हो, तुम संन्यासी हो जाते हो। तुम एक वैयक्तिक इकाई बन जाते हो। अब तुम अपने प्रामाणिक केंद्र द्वारा जीते हो। जब तुम दिखावा नहीं करते, तब तुम्हें कोई चिंता नहीं रहती। जब तुम स्वयं को प्रस्तुत करने का रुख नहीं अपनाते, तो दूसरे जो कहते हैं उसका तुम पर प्रभाव नहीं पड़ता। जब तुम दिखावा नहीं करते, तो तुम निर्लिप्त हुए रहते हो। व्यक्तित्व निर्लिप्त नहीं रह सकता। यह एक बहुत नाजुक चीज है। यह तुम्हारे और दूसरे के बीच निर्मित होता है, और यह दूसरे पर निर्भर करता है। दूसरा अपना मन बदल सकता है; वह तुम्हें संपूर्णतया नष्ट कर सकता है। तुम किसी खी की ओर देखते हो। वह मुसकुरा देती है, और तुम इतना सुंदर अनुभव करते हो उसकी मुसकान के कारण। लेकिन यदि आंखों में घृणा भर वह मुंह फेर लेती है, तब तुम एकदम टूट जाते हो। वस्तुत: तुम टूटे हुए हो क्योंकि तुम्हारा व्यक्तित्व उसके जूतों के नीचे फेंका गया था। वह तुम पर से गुजर जाती है। वह देखती तक नहीं।

हर क्षण तुम डरे हुए हो कि कोई तुम्हारा व्यक्तित्व न कुचल दे। तब सारा संसार एक चिंता बन जाता है। ईश्वर की निजता है, पर व्यक्तित्व नहीं। जो कुछ वह है, वही वह दिखाता है। जो कुछ वह भीतर है, वही वह बाहर है। वस्तुत: उसके लिए भीतर और बाहर तिरोहित हो गये हैं।

‘ईश्वर सर्वोत्कृष्ट है।’ अंगेजी में इसे ऐसा कहा जाता है, ‘गॉड इज दि सुप्रीम रूलर।’ इसीलिए मैं कहता हूं कि पतंजलि के विषय में गलतफहमी बनी हुई है। संस्कृत में वे ईश्वर को कहते हैं ‘पुरुष—विशेष’ —सवोंत्कृष्ट निज सत्ता। कोई रूलर, कोई शासक नहीं। मैं ‘ईश्वर’ को ‘दि सुप्रीम’ ही कहना चाहूंगा। वह दिव्य चेतना की वैयक्तिक इकाई है। ध्यान रहे, वैयक्तिक है, सर्वसामान्य नहीं है, क्योंकि पतंजलि कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर है।

‘वह जीवन के दुखों से, कर्म से और उसके परिणाम से अछूता है।’

क्यों? क्योंकि जितने ज्यादा तुम वैयक्तिक होते हो, जीवन उतनी ज्यादा विभिन्न गुणवत्ता पा लेता है। एक नया आयाम खुल जाता है—उत्सव का आयाम। जितना अधिक तुम संबंध रखते हो व्यक्तित्व के साथ और बाहर के साथ, बाहरी परतों के साथ, ऊपरी सतह के साथ, उतना अधिक तुम्हारे जीवन का आयाम बन जाता है एक कर्म। तुम परिणाम के विषय में चिंतित होते हो, इस बारे में कि तुम्हें लक्ष्य मिलेगा या नहीं। हमेशा चिंतित ही रहते हो कि चीजें तुम्हें मदद देने वाली हैं या नहीं। यह चिंता, कि कल क्या होगा?

वह व्यक्ति, जिसका जीवन एक उत्सव बन गया है, कल की चिंता नहीं करता, क्योंकि वह जीता है केवल आज में। जीसस कहते हैं, ‘लिली के इन फूलों की ओर देखो। वे इतने सुंदर हैं।’ क्योंकि उनके लिए जीवन कोई कर्म नहीं है। नदियों की ओर देखो, सितारों की ओर देखो। मनुष्य के अंतिरिका हर चीज सुंदर और पवित्र है, क्योंकि सारा अस्तित्व एक उत्सव है। वहां कोई परिणाम के लिए चिंतित नहीं है। क्या वृक्ष को इसकी चिंता होती है कि फूल आयेंगे या नहीं? क्या नदी को चिंता है कि वह सागर तक पहुंचेगी या नहीं? मनुष्य के अंतिरिका कहीं किसी को चिंता नहीं। मनुष्य क्यों चिंतित है? क्योंकि वह जीवन को कर्म की भांति देखता है, लीला की भांति नहीं। और यह सारा अस्तित्व एक लीला है, एक उत्सव है।

पतंजलि कहते हैं कि जब कोई स्वयं के केंद्र में अवस्थित हो जाता है, तो वह एक लीला बन जाता है। तब लीला होती है। जीवन एक उत्‍फुल्‍ल क्रीड़ा है। और यह सुंदर है। परिणाम की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। परिणाम से कुछ लेना—देना नहीं है। यह बिलकुल असंगत है जो भी तुम कर रहे हो, वह स्वयं में मूल्य रखता है। मैं तुमसे बात कर रहा हूं; तुम मुझे सुन रहे हो। लेकिन तुम उद्देश्य लेकर सुन रहे हो, और मैं निरुद्देश्य होकर बात कह रहा हूं। तुम उद्देश्य सहित सुन रहे हो, और तुम आशा करते हो कि सुनने के द्वारा तुम्हें कुछ प्राप्त होने वाला है—कोई ज्ञान, कोई सूत्र, कुछ तरकीबें, कुछ विधियां, कोई समझ मिलने वाली है। और फिर तुम उनसे कोई रास्ता बना लोगे। तुम परिणाम के पीछे जाते हो, और मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं प्रयोजनरहित होकर। मैं तो बस इसमें आनंद पाता हूं।

लोग मुझसे पूछते हैं, ‘आप क्यों रोज प्रवचन देते हैं? ‘ मुझे आनंद है इसमें। यह पक्षियों के गाने, चहचहाने जैसा है। क्या है उद्देश्य? क्या तुम गुलाब से पूछते हो कि वह क्यों खिलता चला जाता है में क्या होता है उद्देश्य? मैं बोल रहा हूं क्योंकि मेरा स्वयं को तुम्हारे साथ बांटना अपने में मूल्यवान है। इसमें एक आंतरिक मूल्य है। मैं परिणाम को नहीं खोज रहा; मुझे चिंता नहीं कि तुम इसके द्वारा रूपांतरित होते हो या नहीं। कोई चिंता नहीं है। यदि तुम मुझे सुनते हो, बस हो गयी बात। और अगर तुम भी चिंतित नहीं हो, तब रूपांतरण इसी क्षण घट सकता है। तुम्हें चिंता है कि जो कुछ मैं कहता हूं उसका उपयोग कैसे किया जाये—उसे कैसे उपयोग किया जाये, उसका क्या किया जाये!

तुम पहले से ही भविष्य में हो। तुम यहां नहीं हो; तुम क्रीड़ा का उत्सव नहीं मना रहे हो। तुम तो जैसे किसी कारखाने में हो। तुम जीवन—क्रीड़ा का उत्सव नहीं मना रहे। तुम इसके द्वारा कुछ परिणाम पा लेने की सोच रहे हो। और मैं सर्वथा प्रयोजनरहित हूं। इस तरह मैं स्वयं का आनंद तुममें बांटता हूं। मैं इसलिए नहीं बोल रहा हूं कि भविष्य में कुछ करना है; मैं बोल रहा हूं क्योंकि अभी इसी बांटने के द्वारा कुछ घट रहा है, और वह पर्याप्त है।

‘आंतरिक मूल्य’ इन शब्दों को खयाल में लेना; और अपने प्रत्येक कार्य में आंतरिक मूल्य होने देना। परिणाम की चिंता मत ले लेना क्योंकि जिस क्षण तुम परिणाम की सोचते हो, तो जो कुछ तुम कर रहे होते हो वह साधन बन जाता है और साध्य होता है भविष्य में। साधनों को ही साध्य बना दो; मार्ग को ही लक्ष्य बना दो, इसी क्षण को परम बना दो। इसके पार कुछ नहीं है। यह है एक भगवान की अवस्था। और जब भी कभी उत्सव मना रहे होते हो, तुम्हें इसकी थोड़ी झलक मिलती है।

बच्चे खेलते हैं, और तुम बच्चों के खेलने से अधिक दिव्य कोई और चीज नहीं खोज सकते। इसलिए जीसस कहते हैं, ‘जब तक तुम बच्चों जैसे न हो जाओ तुम मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न करोगे।’ बच्चों जैसे हो जाओ। इसका अर्थ यह नहीं कि बचकाना होना है, क्योंकि बचकाना होना एक पूर्णत: भिन्न बात होती है। बच्चों जैसा होना समपरूपेण अलग बात है। बचकानापन गिराना पड़ता है। वह बालपन है, मूर्खता है। परंतु बच्चों की भांति होने की बात को बढ़ाना है। वह निर्दोषता है—प्रयोजनविहीन निर्दोषता। लाभ की बात साथ में विष ले आती है; परिणाम तुममें विष घोलता है। तब निर्दोषता खो जाती है।

‘ईश्वर सर्वोत्कृष्ट है। वह दिव्य चेतना की व्यक्तिगत इकाई है। वह जीवन के दुखों से तथा कर्म और उसके परिणाम से अछूता है।’

 तुम बिलकुल अभी भगवान हो सकते हो क्योंकि तुम वह हो ही। बात को केवल पूरी तरह समझ लेना है। तुम पहले से ही वही अवस्था हो। ऐसा नहीं है कि तुम्हें विकसित होना है भगवान होने के लिए। वास्तव में तुम्हें अनुभव कर लेना है कि तुम पहले से ही वही हो।

और यह घटता है समर्पण द्वारा।

पतंजलि कहते हैं कि तुम ईश्वर में विश्वास करते हो, तुम ईश्वर में आस्था रखते हो, जो है कहीं, वहां ब्रह्मांड में, कहीं ऊपर, ऊंचाई पर, और तुम समर्पण कर देते हो। वह ईश्वर मात्र एक आश्रय है समर्पण करने में तुम्हें मदद देने के लिए। जब समर्पण घटता है, तुम भगवान हो जाते हो। क्योंकि समर्पण का अर्थ है वह वृत्ति जिसमें तुम अनुभव करते हो कि अब मैं परिणाम से संबंध नहीं रखता। मैं भविष्य से संबंधित नहीं हूं मैं स्वयं अपने से ही बिलकुल संबंध नहीं रखता। मैं समर्पण करता हूं।

जब तुम कहते हो, ‘मैं समर्पण करता हूं ‘ तो किसका होता है यह समर्पण? उस मैं का, उस अहंकार का। और बिना अहंकार के तुम उद्देश्य के बारे में, परिणाम के बारे में कैसे सोच सकते हो? कौन सोचेगा उनके बारे में? तब तुम स्वयं को बहने देते हो। तब तुम वहां जाते हो जहां चीजें ले जाती हैं। अब समग्र समष्टि करेगी निर्णय; तुमने तुम्हारे निर्णय बनाने का समर्पण कर दिया है।

पतंजलि कहते है कि दो तरीके हैं।

एक है, तुम्हारे प्रयास को समग्र बनाना। यदि तुम अहंकार एकत्रित नहीं करते, तब वह समग्र प्रयास स्वयं में ही एक समर्पण बन जायेगा। यदि तुम अहंकार एकत्रित करते हो, तब एक दूसरा तरीका होता है—ईश्वर को समर्पण कर दो।

 ईश्वर में बीज अपने उच्चतम विस्तार में विकसित होता है।

 तुम बीज हो, और परमात्मा प्रस्‍फुटित अभिव्यक्ति है। तुम बीज हो और परमात्मा वास्तविकता है। तुम हो संभावना; वह वास्तविक है। परमात्मा तुम्हारी नियति है, और तुम कई जन्मों से अपनी नियति पास रखे हुए हो बिना उसकी ओर देखे। क्योंकि तुम्हारी आंखें कहीं भविष्य में लगी होती हैं; वे वर्तमान को नहीं देखतीं। यदि तुम देखने को राजी हो तो यहीं, अभी, हर चीज वैसी है जैसी होनी चाहिए। किसी चीज की जरूरत नहीं। अस्तित्व संपूर्ण है हर क्षण। यह कभी अपूर्ण हुआ ही नहीं; यह हो सकता नहीं। यदि यह अपूर्ण होता, तो यह संपूर्ण कैसे हो सकेगा? फिर कौन इसे संपूर्ण बनायेगा?

अस्तित्व संपूर्ण है, कुछ करने की जरा भी कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम इसे समझ लो तो समर्पण पर्याप्त है। किसी प्रयास, किसी प्राणायाम, भस्त्रिका, किसी शीर्षासन, योगासन, या ध्यान या कोई विधि—किसी चीज की जरूरत नहीं है। यदि तुम इसे समझ लो कि अस्तित्व जैसा है, बस पूर्ण है…। भीतर खोज लो, बाहर खोज लो, हर चीज इतनी पूर्ण है कि उत्सव मनाने के अतिरिका कुछ नहीं किया जा सकता। वह व्यक्ति, जो समर्पण करता है, उत्सव मनाना आरंभ कर देता है।

SOURCE: पंतजलि: योगसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–13
समग्र संकल्‍प या समग्र समर्पण—प्रवचन—तैहरवां


OSHO-Rajanish