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परमात्मा से वेदोत्पत्ति में वेद का प्रमाण-दयानन्दसरस्वती

प्रथम ईश्वर को नमस्कार और प्रार्थना करके पश्चात् वेदों की उत्पत्ति का विषय लिखा जाता है, कि वेद किसने उत्पन्न किये हैं। (तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः) सत् जिसका कभी नाश नहीं होता, आनन्द जो सदा सुखस्वरूप और सबको सुख देनेवाला है, इत्यादि लक्षणों से युक्त पुरुष जो सब जगह में परिपूर्ण हो रहा है, जो सब मनुष्यों के उपासना के योग्य इष्टदेव और सब सामर्थ्य से युक्त है, उसी परब्रह्म से (ऋचः) ऋग्वेद, (यजुः) यजुर्वेद (सामानि) सामवेद और (छन्दांसि) इस शब्द से अथर्ववेद भी, ये चारों वेद उत्पन्न हुए हैं।
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Contents

  • परमात्मा से वेदोत्पत्ति में वेद का प्रमाण
    • परमात्मा से वेदोत्पत्ति में ब्राह्मणग्रन्थ का प्रमाण
    • निराकार परमात्मा से शब्दरूप वेद की उत्पत्ति
    • शास्त्रों के समान वेद की उत्पत्ति मनुष्य द्वारा असम्भव
    • मनुष्य के स्वाभाविक ज्ञान से वेदोत्पत्ति सम्भव नहीं
  • वेदों के प्रकाश में ईश्वर का प्रयोजन
  • साधनों के विना ईश्वर ने वेद की रचना की
  • वेदज्ञान देने की विधि और उसको प्राप्त करने वाले ऋषि
  • चार ऋषियों को वेदज्ञान दिये जाने का कारण
    • जीव, कर्म और जगत् ये तीन अनादि
  • वेदमन्त्रों के छन्दों का रचयिता भी ईश्वर
  • ब्रह्मा को वेदरचयिता बनाने वाला आख्यान मिथ्या
  • व्यास को वेद का संग्रहकर्त्ता बताने वाला आख्यान मिथ्या
  • मन्त्र और सूक्तों पर निर्दिष्ट ऋषि मन्त्रकृत् नहीं
  • संहिताओं के वेद और श्रुति नामकरण में प्रयोजन
  • वेदोत्पत्ति और सृष्टि के काल का परिगणन
    • मनुस्मृति के अनुसार कालपरिगणन
    • कालगणना
      • सहस्रसंज्ञा
    • ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कालगणना
    • कालगणना की भारतीय परम्परा
      • विधर्मियों के द्वारा विद्यापुस्तकों का नाश
  • विलसनादि के वेदविषयक विचार भ्रान्तिमूलक
  • Related

परमात्मा से वेदोत्पत्ति में वेद का प्रमाण

Rigvedadi Bhashya Bhumika

Dayananda Saraswati (12 February 1824 – 30 October 1883)

तस्मा॑द्य॒ज्ञात् स॑र्व॒हुत॒ ऋचः॒ सामा॑नि जज्ञिरे।

छन्दां॑सि जज्ञिरे॒ तस्मा॒द्यजु॒स्तस्मा॑दजायत॥॥१॥ (यजु॰३१.७)

(तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः) तस्मात् यज्ञात् सच्चिदानन्दादिलक्षणात् पूर्णात् पुरुषात् सर्वहुतात् सर्वपूज्यात् सर्वोपास्यात् सर्वशक्तिमतः परब्रह्मणः (ऋचः) ऋग्वेदः, (यजुः) यजुर्वेदः, (सामानि) सामवेदः, (छन्दां॑सि) अथर्ववेदश्च (जज्ञिरे) चत्वारो वेदास्तेनैव प्रकाशिता इति वेद्यम्। सर्वहुत इति वेदानामपि विशेषणं भवितुमर्हति, वेदाः सर्वहुतः। यतः सर्वमनुष्यैर्होतुमादातुं ग्रहीतुं योग्याः सन्त्यतः। जज्ञिरे अजायतेति क्रियाद्वयं वेदानामनेकविद्यावत्त्वद्योतनार्थम्। तथा [तस्मात्] तस्मादिति पदद्वयमीश्वरादेव वेदा जाता इत्यवधारणार्थम्। वेदानां गायत्र्यादिच्छन्दोन्वितत्वात् पुनश्छन्दांसीति पदं चतुर्थस्याथर्ववेदस्योत्पत्तिं ज्ञापयतीत्यवधेयम्। ‘यज्ञो वै विष्णुः’ (श॰ब्रा॰१.१.२.१३) ‘इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्।’ (यजु॰ ५.१५) इति सर्वजगत्कर्त्तृत्वं विष्णौ परमेश्वर एव घटते, नान्यत्र। वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स विष्णुः परमेश्वरः॥१॥

प्रथम ईश्वर को नमस्कार और प्रार्थना करके पश्चात् वेदों की उत्पत्ति का विषय लिखा जाता है, कि वेद किसने उत्पन्न किये हैं। (तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः) सत् जिसका कभी नाश नहीं होता, आनन्द जो सदा सुखस्वरूप और सबको सुख देनेवाला है, इत्यादि लक्षणों से युक्त पुरुष जो सब जगह में परिपूर्ण हो रहा है, जो सब मनुष्यों के उपासना के योग्य इष्टदेव और सब सामर्थ्य से युक्त है, उसी परब्रह्म से (ऋचः) ऋग्वेद, (यजुः) यजुर्वेद (सामानि) सामवेद और (छन्दांसि) इस शब्द से अथर्ववेद भी, ये चारों वेद उत्पन्न हुए हैं। इसलिये सब मनुष्यों को उचित है कि वेदों का ग्रहण करें और वेदोक्त रीति से ही चलें। ‘जज्ञिरे’ और ‘अजायत’ इन दोनों क्रियाओं के अधिक होने से वेद अनेक विद्याओं से युक्त है, ऐसा जाना जाता है। वैसे ही ‘तस्मात्’ इन दोनों पदों के अधिक होने से यह निश्चय जानना चाहिये कि ईश्वर से ही वेद उत्पन्न हुए हैं, किसी मनुष्य से नहीं। वेदों में सब मन्त्र गायत्र्यादि छन्दों से युक्त ही हैं। फिर ‘छन्दांसि’ इस पद के कहने से चौथा जो अथर्ववेद है, उसकी उत्पत्ति का प्रकाश होता है। शतपथ आदि ब्राह्मण और वेदमन्त्रों के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि ‘यज्ञ’ शब्द से ‘विष्णु’ का और विष्णु शब्द सर्वव्यापक जो परमेश्वर है, उसीका ग्रहण होता है, क्योंकि सब जगत् की उत्पत्ति करनी परमेश्वर में ही घटती है, अन्यत्र नहीं॥१॥

यस्मा॒दृचो॑ अ॒पात॑क्ष॒न् यजुर्यस्मा॑द॒पाक॑षन्।

सामा॑नि॒ यस्य॒ लोमा॑न्यथर्वाङ्गि॒रसो॒ मुख॑म्।

स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः॥२॥ (अथर्व॰१०.७.२०)

(यस्मादृचः) यस्मात् सर्वशक्तिमतः ऋचः ऋग्वेदः (अपातक्षन्) अपातक्षत् उत्पन्नोऽस्ति, [यस्मात्] यस्मात् परब्रह्मणः (यजुः) यजुर्वेदः (अपाकषन्) प्रादुर्भूतोऽस्ति, तथैव यस्मात् (सामानि) सामवेदः (आङ्गिरसः) अथर्ववेदश्चोत्पन्नौ स्तः, एवमेव [यस्य आङ्गिरसो मुखम्] यस्येश्वरस्याङ्गिरसोऽथर्ववेदो मुखं मुखवन्मुख्योऽस्ति, सामानि [लोमानि] लोमानीव सन्ति, यजुर्यस्य हृदयमृचः प्राणश्चेति रूपकालङ्कारः। यस्माच्चत्वारो वेदा उत्पन्नाः [कतमः स्विदेव सः ब्रूहि] स कतमः स्विद्देवोऽस्ति तं त्वं ब्रूहीति प्रश्नः? अस्योत्तरम्—(स्कम्भं तम्) तं स्कम्भं सर्वजगद्धारकं परमेश्वरं त्वं जानीहीति, तस्मात् स्कम्भात् सर्वाधारात् परमेश्वरात् पृथक् कश्चिदप्यन्यो देवो वेदकर्त्ता नैवास्तीति मन्तव्यम्॥२॥

(यस्मादृचो अपा॰) जो सर्वशक्तिमान् परमेश्वर है, उसी से (ऋचः) ऋग्वेद (यजुः) यजुर्वेद (सामानि) सामवेद (आङ्गिरसः) अथर्ववेद, ये चारों उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार रूपकालङ्कार से वेदों की उत्पत्ति का प्रकाश ईश्वर करता है कि अथर्ववेद मेरे मुख के समतुल्य, सामवेद लोमों के समान, यजुर्वेद हृदय के समान और ऋग्वेद प्राण की नाईं है। (ब्रूहि कतमः स्विदेव सः) कि चारों वेद जिससे उत्पन्न हुए हैं सो कौन-सा देव है, उसको तुम मुझसे कहो? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि—(स्कम्भं तं०) जो सब जगत् का धारणकर्त्ता परमेश्वर है उसका नाम ‘स्कम्भ’ है, उसी को तुम वेदों का कर्त्ता जानो, और यह भी जानो कि उसको छोड़ के मनुष्यों के उपासना करने के योग्य दूसरा कोई इष्टदेव नहीं है। क्योंकि ऐसा अभागी कौन मनुष्य है जो वेदों के कर्त्ता सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को छोड़ के दूसरे को परमेश्वर मान के उपासना करे॥२॥

परमात्मा से वेदोत्पत्ति में ब्राह्मणग्रन्थ का प्रमाण

एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः॥३॥ (श॰ब्रा.१४.५.४.१०)

अस्यायमभिप्रायः। याज्ञवल्क्योऽभिवदति—हे मैत्रेयि! महत आकाशादपि बृहतः परमेश्वरस्यैव सकाशादृग्वेदादिवेदचतुष्टयं (निःश्वसितम्) निःश्वासवत्सहजतया निःसृतमस्तीति वेद्यम्। यथा शरीराच्छ्वासो निःसृत्य पुनस्तदेव प्रविशति तथैवेश्वराद्वेदानां प्रादुर्भावतिरोभावौ भवत इति निश्चयः॥३॥

(एवं वा अरेऽस्य॰) याज्ञवल्क्य महाविद्वान् जो महर्षि हुए हैं, वह अपनी पण्डिता मैत्रेयी स्त्री को उपदेश करते हैं कि हे मैत्रेयि! जो आकाशादि से भी बड़ा सर्वव्यापक परमेश्वर है, उससे ही ऋक्, यजुः, साम और अथर्व ये चारों वेद उत्पन्न हुए हैं, जैसे मनुष्य के शरीर से श्वास बाहर को आके फिर भीतर को जाता है, इसी प्रकार सृष्टि के आदि में ईश्वर वेदों को उत्पन्न करके संसार में प्रकाश करता है, और प्रलय में संसार में वेद नहीं रहते, परन्तु उसके ज्ञान के भीतर वे सदा बने रहते हैं, बीजांकुरवत्। जैसे बीज में अंकुर प्रथम ही रहता है, वही वृक्षरूप होके फिर भी बीज के भीतर रहता है, इसी प्रकार से वेद भी ईश्वर के ज्ञान में सब दिन बने रहते हैं, उनका नाश कभी नहीं होता, क्योंकि वह ईश्वर की विद्या है, इससे इनको नित्य ही जानना॥३॥

निराकार परमात्मा से शब्दरूप वेद की उत्पत्ति

अत्र केचिदाहुः—निरवयवात् परमेश्वराच्छब्दमयो वेदः कथमुत्पद्यतेति?

इस विषय में कितने पुरुष ऐसा प्रश्न करते हैं कि ईश्वर निराकार है, उससे शब्द रूप वेद कैसे उत्पन्न हो सकते हैं?

अत्र ब्रूमः। न सर्वशक्तिमतीश्वरे शङ्केयमुपपद्यते। कुतः? मुखप्राणादिसाधनमन्तरापि तस्य कार्यं कर्त्तुं सामर्थ्यस्य सदैव विद्यमानत्वात्।

इसका उत्तर यह है कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है, उसमें ऐसी शङ्का करनी सर्वथा व्यर्थ है, क्योंकि मुख और प्राणादि साधनों के विना भी परमेश्वर में मुख और प्राणादि के काम करने का अनन्त सामर्थ्य है कि मुख के बिना मुख का काम और प्राणादि के बिना प्राणादि का काम वह अपने सामर्थ्य से यथावत् कर सकता है। यह दोष तो हम जीव लोगों में आ सकता है कि मुखादि के विना मुखादि का कार्य नहीं कर सकते हैं, क्योंकि हम लोग अल्प सामर्थ्यवाले हैं।

अन्यच्च, यथा मनसि विचारणावसरे प्रश्नोत्तरादिशब्दोच्चारणं भवति तथेश्वरेऽपि मन्यताम्। योऽस्ति खलु सर्वशक्तिमान् स नैव कस्यापि सहायं कार्य्यं कर्त्तुं गृह्णाति। यथास्मदादीनां सहायेन विना कार्यं कर्त्तुं सामर्थ्यं नास्ति; न चैवमीश्वरे। यदा निरवयवेनेश्वरेण सकलं जगद्रचितं तया वेदरचने का शङ्कास्ति? कुतः, वेदस्य सूक्ष्मरचनवज्जगत्यपि महदाश्चर्यभूतं रचनमीश्वरेण कृतमस्त्यतः।

और इसमें यह दृष्टान्त भी है कि मन में मुखादि अवयव नहीं हैं। तथापि जैसे उसके भीतर प्रश्नोत्तर आदि शब्दों का उच्चारण मानस व्यापार में होता है, वैसे ही परमेश्वर में भी जानना चाहिये। और जो सम्पूर्ण सामर्थ्यवाला है सो किसी कार्य के करने में किसी का सहाय ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह अपने सामर्थ्य से ही सब कार्यों को कर सकता है। जैसे हम लोग विना सहाय के कोई काम नहीं कर सकते वैसा ईश्वर नहीं है। जैसे देखो कि जब जगत् उत्पन्न नहीं हुआ था, उस समय निराकार ईश्वर ने सम्पूर्ण जगत् को बनाया, तब वेदों के रचने में क्या शङ्का रही? जैसे वेदों में अत्यन्त सूक्ष्म विद्या का रचन ईश्वर ने किया है, वैसे ही जगत् में भी नेत्र आदि पदार्थों का अत्यन्त आश्चर्यरूप रचन किया है, तो क्या वेदों की रचना निराकार ईश्वर नहीं कर सकता?

शास्त्रों के समान वेद की उत्पत्ति मनुष्य द्वारा असम्भव

ननु जगद्रचने तु खल्वीश्वरमन्तरेण न कस्यापि सामर्थ्यमस्ति वेदरचने त्वन्यस्यान्यग्रन्थरचनवत् स्यादिति?

प्रश्न—जगत् के रचने में तो ईश्वर के विना किसी जीव का सामर्थ्य नहीं है, परन्तु जैसे व्याकरण आदि शास्त्र रचने में मनुष्यों का सामर्थ्य होता है, वैसे वेदों के रचने में भी जीव का सामर्थ्य हो सकता है?

अत्रोच्यते—ईश्वरेण रचितस्य वेदस्याध्ययनान्तरमेव ग्रन्थरचने कस्यापि सामर्थ्यं स्यान्न चान्यथा। नैव कश्चिदपि पठनश्रवणमन्तरा विद्वान् भवति। यथेदानीं किञ्चिदपि शास्त्रं पठित्वोपदेशं श्रुत्वा व्यवहारं च दृष्ट्वैव मनुष्याणां ज्ञानं भवति। तद्यथा—कस्यचित्सन्तानमेकान्ते रक्षयित्वाऽन्नपानादिकं युक्त्या दद्यात् तेन सह भाषणादिव्यवहारं लेशमात्रमपि न कुर्याद्यावत्तस्य मरणं न स्यात्। यथा तस्य किञ्चिदपि यथार्थं ज्ञानं न भवति। यथा च महारण्यस्थानां मनुष्याणामुपदेशमन्तरा पशुवत्प्रवृत्तिर्भवति। तथैवादिसृष्टिमारभ्याद्यपर्यन्तं वेदोपदेशमन्तरा सर्वमनुष्याणां प्रवृत्तिर्भवेत्। पुनर्ग्रन्थरचनस्य तु का कथा?

उत्तर—नहीं, किन्तु जब ईश्वर ने प्रथम वेद रचे हैं, उनको पढ़ने के पश्चात् (ही) ग्रन्थ रचने का सामर्थ्य किसी मनुष्य को हो सकता है। उसके पढ़ने और ज्ञान के विना कोई भी मनुष्य विद्वान् नहीं हो सकता। जैसे इस समय में किसी शास्त्र को पढ़ के, किसी का उपदेश सुन के और मनुष्यों के परस्पर व्यवहारों को देख के ही मनुष्यों को ज्ञान होता है, अन्यथा कभी नहीं होता। जैसे किसी मनुष्य के बालक को जन्म से एकान्त में रख के उसको अन्न और जल युक्ति से देवे, उसके साथ भाषणादि व्यवहार लेशमात्र भी कोई मनुष्य न करे, कि जब तक उसका मरण न हो तब तक उसको इसी प्रकार से रक्खे तो मनुष्यपन का भी ज्ञान नहीं हो सकता। तथा जैसे बड़े वन में मनुष्यों को विना उपदेश के यथार्थ ज्ञान नहीं होता, किन्तु पशुओं की नाईं उनकी प्रवृत्ति देखने में आती है, वैसे ही वेदों के उपदेश के विना भी सब मनुष्यों की प्रवृत्ति हो जाती, फिर ग्रन्थ रचने के सामर्थ्य की तो कथा क्या ही कहनी है? इससे वेदों को ईश्वर के रचित मानने से ही कल्याण है, अन्यथा नहीं।

मनुष्य के स्वाभाविक ज्ञान से वेदोत्पत्ति सम्भव नहीं

मैवं वाच्यम्। ईश्वरेण मनुष्येभ्यः स्वाभाविकं ज्ञानं दत्तं, तच्च सर्वग्रन्थेभ्य उत्कृष्टमस्ति, नैव तेन विना वेदानां शब्दार्थसम्बन्धानामपि ज्ञानं भवितुमर्हति, तदुन्नत्या ग्रन्थरचनमपि करिष्यन्त्येव, पुनः किमर्थं मन्यन्ते वेदोत्पादनमीश्वरेण कृतमिति?

प्रश्न—[वेद ईश्वरकृत हैं, ऐसा नहीं कहना चाहिये। इसका कारण यह है कि] ईश्वर ने मनुष्यों को स्वाभाविक ज्ञान दिया है सो सब ग्रन्थों से उत्तम है, क्योंकि उसके विना वेदों के शब्द, अर्थ और सम्बन्ध का ज्ञान कभी नहीं हो सकता। और जब उस ज्ञान की क्रम से वृद्धि होगी, तब मनुष्य लोग विद्यापुस्तकों को भी रच लेंगे, पुनः वेदों की उत्पत्ति ईश्वर से क्यों माननी?

एवं प्राप्ते वदामहे—नैव पूर्वोक्तायाशिक्षितायैकान्ते रक्षिताय बालकाय महारण्यस्थेभ्यो मनुष्येभ्यश्चेश्वरेण स्वाभाविकं ज्ञानं दत्तं किम्? कथं नास्मदादयोऽप्यन्येभ्यः शिक्षाग्रहणमन्तरेण वेदाध्ययनेन च विना पण्डिता भवन्ति? तस्मात् किमागतम्? न शिक्षया विनाध्ययनेन च स्वाभाविकज्ञानमात्रेण कस्यापि निर्वाहो भवितुमर्हति। यथास्मदादिभिरप्यन्येषां विदुषां विद्वत्कृतानां ग्रन्थानां च सकाशादनेकविधं ज्ञानं गृहीत्वैव ग्रन्थान्तरं रच्यते, तथेश्वरज्ञानस्य सर्वेषां मनुष्याणामपेक्षावश्यं भवति।

उत्तर—जो प्रथम दृष्टान्त बालक का एकान्त में रखने का और दूसरा वनवासियों का भी कहा था, क्या उनको स्वाभाविक ज्ञान ईश्वर ने नहीं दिया है? वे स्वाभाविक ज्ञान से विद्वान् क्यों नहीं होते? इससे यह बात निश्चित है कि ईश्वर का किया उपदेश जो वेद है, उसके विना किसी मनुष्य को यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता। जैसे हम लोग वेदों के पढ़ने, विद्वानों की शिक्षा और उनके किये ग्रन्थों को पढ़े विना पण्डित नहीं होते, वैसे ही सृष्टि के आदि में भी परमात्मा जो वेदों का उपदेश नहीं करता तो आज पर्यन्त किसी मनुष्य को धर्मादि पदार्थों की यथार्थविद्या नहीं होती। इससे क्या जाना जाता है कि विद्वानों की शिक्षा और वेद पढ़ने के विना केवल स्वाभाविक ज्ञान से किसी मनुष्य का निर्वाह नहीं हो सकता। जैसे हम अन्य विद्वानों से वेदादि शास्त्रों के अनेक प्रकार के विज्ञान को ग्रहण करके ही पीछे ग्रन्थों को भी रच सकते हैं, वैसे ही ईश्वर के ज्ञान की भी अपेक्षा सब मनुष्यों को अवश्य है।

किञ्च, न सृष्टेरारम्भसमये पठनपाठनक्रमो ग्रन्थश्च कश्चिदप्यासीत् तदानीमीश्वरोपदेशमन्तरा न च कस्यापि विद्यासम्भवो बभूव, पुनः कथं कश्चिज्जनो ग्रन्थं रचयेत्। मनुष्याणां नैमित्तिकज्ञाने स्वातन्त्र्याभावात्। स्वाभाविकज्ञानमात्रेणैव विद्याप्राप्त्यनुपपत्तेश्च।

क्योंकि सृष्टि के आरम्भ में पढ़ने और पढ़ाने की कुछ भी व्यवस्था नहीं थी, तथा विद्या का कोई ग्रन्थ भी नहीं था, उस समय ईश्वर के किये वेदोपदेश के विना विद्या के नहीं होने से कोई मनुष्य ग्रन्थ की रचना कैसे कर सकता? क्योंकि सब मनुष्यों को सहायकारी ज्ञान में स्वतन्त्रता नहीं है। और स्वाभाविक ज्ञानमात्र से विद्या की प्राप्ति किसी को नहीं हो सकती। इसी से ईश्वर ने सब मनुष्यों के हित के लिये वेदों की उत्पत्ति की है।

यच्चोक्तं स्वकीयं ज्ञानमुत्कृष्टमित्यादि, तदप्यसमञ्जसम्। तस्य साधनकोटौ प्रविष्टत्वात्। चक्षुर्वत्। यथा चक्षुर्मनःसाहित्येन विना ह्यकिञ्चित्करमस्ति। तथान्येषां विदुषामीश्वरज्ञानस्य च साहित्येन विना स्वाभाविकज्ञानमप्यकिञ्चित्करमेव भवतीति।

और जो यह कहा था कि अपना ज्ञान सब वेदादि ग्रन्थों से श्रेष्ठ है, सो भी अन्यथा है, क्योंकि वह स्वाभाविक जो ज्ञान है सो साधनकोटि में है। जैसे मन के संयोग के विना आँख से कुछ भी नहीं देख पड़ता तथा आत्मा के संयोग के विना मन से भी कुछ नहीं होता, वैसे ही जो स्वाभाविक ज्ञान है सो वेद और विद्वानों की शिक्षा के ग्रहण करने में साधनमात्र ही है, तथा पशुओं के समान व्यवहार का भी साधन है, परन्तु वह स्वाभाविक ज्ञान धर्म, अर्थ, काम और मोक्षविद्या का साधन स्वतन्त्रता से कभी नहीं हो सकता।

वेदों के प्रकाश में ईश्वर का प्रयोजन

वेदोत्पादन ईश्वरस्य किं प्रयोजनमस्तीत्यत्र वक्तव्यम्?

प्रश्न—वेदों को उत्पन्न करने में ईश्वर का क्या प्रयोजन था?

उच्यते—वेदानामनुत्पादने खलु तस्य किं प्रयोजनमस्तीति? अस्योत्तरं तु वयं न जानीमः। सत्यमेवमेतत्। तावद् वेदोत्पादने यदस्ति प्रयोजनं तच्छृणुत।

उत्तर—मैं तुमसे पूछता हूँ कि वेदों को उत्पन्न नहीं करने में उसको क्या प्रयोजन था? जो तुम यह कहो कि इसका उत्तर हम नहीं जान सकते तो ठीक है, क्योंकि वेद तो ईश्वर की नित्य विद्या है, उसकी उत्पत्ति या अनुत्पत्ति हो ही नहीं सकती। परन्तु हम जीव लोगों के लिये ईश्वर ने जो वेदों का प्रकाश किया है सो उसकी हम पर परमकृपा है। जो वेदोत्पत्ति का प्रयोजन सो आप लोग सुनें।

ईश्वरेऽनन्ता विद्यास्ति न वा? अस्ति। सा किमर्थास्ति? स्वार्था। ईश्वरः परोपकारं न करोति किम्? करोति तेन किम्? तेनेदमस्ति, विद्या स्वार्था परार्था च भवति तस्यास्तद्विषयत्वात्।

प्रश्न—ईश्वर में अनन्त विद्या है वा नहीं।

उत्तर—है।

प्रश्न—सो उसकी विद्या किस प्रयोजन के लिये है?

उत्तर—अपने ही लिये, जिससे सब पदार्थों का रचना और जानना होता है।

प्रश्न—अच्छा तो मैं आपसे पूछता हूँ कि ईश्वर परोपकार को करता है वा नहीं?

उत्तर—ईश्वर परोपकारी है। इससे क्या आया? इससे यह बात आती है कि जो विद्या है सो स्वार्थ और परार्थ के लिये होती है, क्योंकि विद्या का यही गुण है कि स्वार्थ और परार्थ इन दोनों को सिद्ध करना।

यद्यस्मदर्थमीश्वरो विद्योपदेशं न कुर्यात् तदान्यतरपक्षे सा निष्फला स्यात्। तस्मादीश्वरेण स्वविद्याभूतवेदस्योपदेशेन सप्रयोजनता संपादिता।

जो परमेश्वर अपनी विद्या का हम लोगों के लिये उपदेश न करे तो विद्या से जो परोपकार करना गुण है उसका नहीं रहे। इससे परमेश्वर ने अपनी वेदविद्या का हम लोगों के लिये उपदेश करके सफलता सिद्ध की है।

परमकारुणिको हि परमेश्वरोऽस्ति, पितृवत्। यथा पिता स्वसन्ततिं प्रति सदैव करुणां दधाति, तथेश्वरोऽपि परमकृपया सर्वमनुष्यार्थं वेदोपदेशमुपचक्रे। अन्यथान्धपरम्परा मनुष्याणां धर्मार्थकाममोक्षसिद्ध्या विना परमानन्द एव न स्यात्।

परमेश्वर हम लोगों का माता-पिता के समान है, हम सब लोग उसकी प्रजा हैं, उन पर नित्य कृपादृष्टि रखता है। जैसे अपने सन्तानों के ऊपर पिता और माता सदैव करुणा को धारण करते हैं कि सब प्रकार से हमारे पुत्र सुख पावें, वैसे ही ईश्वर भी सब मनुष्यादि सृष्टि पर कृपादृष्टि सदैव रखता है, इससे ही वेदों का उपदेश हम लोगों के लिये किया है। जो परमेश्वर अपनी वेदविद्या का उपदेश मनुष्यों के लिये न करता तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि किसी को यथावत् प्राप्त न होती, उसके विना परम आनन्द भी किसी को नहीं होता।

यथा कृपायमाणेनेश्वरेण प्रजासुखार्थं कन्दमूलफलतृणादिकं रचितं, स कथं न सर्वसुखप्रकाशिकां सर्वविद्यामयीं वेदविद्यामुपदिशेत्? किञ्च ब्रह्माण्डस्थोत्कृष्टसर्वपदार्थप्राप्त्या यावत्सुखं भवति न तावत् विद्याप्राप्तसुखस्य सहस्रतमेनांशेनापि तुल्यं भवत्यतो वेदोपदेश ईश्वरेण कृत एवास्ति निश्चयः।

जैसे परमकृपालु ईश्वर ने प्रजा सुख के लिये कन्द, मूल, फल और घास आदि छोटे-छोटे भी पदार्थ रचे हैं सो ही ईश्वर सब सुखों का प्रकाश करनेवाली, सब सत्यविद्याओं से युक्त वेदविद्या का उपदेश भी प्रजा के सुख के लिये क्यों न करता? क्योंकि जितने ब्रह्माण्ड में उत्तम पदार्थ हैं उनकी प्राप्ति में जितना सुख होता है सो सुख विद्याप्राप्ति होने के सुख के हजारहमें अंश के भी समतुल्य नहीं हो सकता। ऐसा सर्वोत्तम विद्यापदार्थ जो वेद है, उसका उपदेश परमेश्वर क्यों न करता? इससे निश्चय करके यह जानना कि वेद ईश्वर के ही बनाये हैं।

साधनों के विना ईश्वर ने वेद की रचना की

ईश्वरेण लेखनीमसीपात्रादिसाधनानि वेदपुस्तकलेखनाय कुतो लब्धानि?

प्रश्न—वेदों के रचने और वेदपुस्तक लिखने के लिये ईश्वर ने लेखनी, स्याही और दवात आदि साधन कहाँ से लिये, क्योंकि उस समय में कागज आदि पदार्थ तो बने ही न थे?

अत्रोच्यते—अहहह! महतीयं शङ्का भवता कृता, विना हस्तपादाद्यवयवैः काष्ठलोष्ठादिसामग्रीसाधनैश्च यथेश्वरेण जगद्रचितं तथा वेदा अपि रचिताः, सर्वशक्तिमतीश्वरे वेदरचनं प्रत्येवं माशङ्कि। किन्तु पुस्तकस्था वेदा तेनादौ नोत्पादिताः।

उत्तर—वाह वाह जी! आपने बड़ी शङ्का करी, आपकी बुद्धि की क्या स्तुति करें? अच्छा मैं आपसे पूछता हूँ कि हाथ-पग आदि अङ्गों से विना तथा काष्ठ, लोह आदि सामग्री साधनों से विना ईश्वर ने जगत् को क्योंकर रचा है? जैसे हाथ आदि अवयवों से विना उसने सब जगत् को रचा है, वैसे ही वेदों को भी सब साधनों के विना रचा है, क्योंकि ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। इससे ऐसी शङ्का उसमें आपको करनी योग्य नहीं। परन्तु इसके उत्तर में इस बात को जानो कि वेदों को पुस्तकों में लिख के सृष्टि के आदि में ईश्वर ने प्रकाशित नहीं किये थे।

वेदज्ञान देने की विधि और उसको प्राप्त करने वाले ऋषि

किं तर्हि? ज्ञानमध्ये प्रेरिताः। केषाम्? अग्निवाय्वादित्याङ्गिरसाम्।

प्रश्न—तो किस प्रकार से किये थे?

उत्तर—ज्ञान के बीच में।

प्रश्न—किनके ज्ञान के बीच में?

उत्तर—अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा के।

ते तु ज्ञानरहिता जडाः सन्ति? मैवं वाच्यं, सृष्ट्यादौ मनुष्यदेहधारिणस्ते ह्यासन्। कुतः जडे ज्ञानकार्यासम्भवात्। यत्रार्थासम्भवोऽस्ति तत्र लक्षणा भवति। तद्यथा कश्चिदाप्तः कञ्चित्प्रति वदति मञ्चा क्रोशन्तीति। अत्र मञ्चस्था मनुष्याः क्रोशन्तीति विज्ञायते। तथैवात्रापि विज्ञायताम्। विद्याप्रकाशसंभवो मनुष्येष्वेव भवितुमर्हतीति। अत्र प्रमाणम्—तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्ताग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः। (श॰ब्रा॰११.५.२.३) एषां ज्ञानमध्ये प्रेरयित्वा तद्द्वारा वेदाः प्रकाशिताः।

प्रश्न—वे तो जड़ पदार्थ हैं?

उत्तर—ऐसा मत कहो, वे सृष्टि के आदि में मनुष्यदेहधारी हुए थे, क्योंकि जड़ में ज्ञान के कार्य का असम्भव है, और जहाँ-जहाँ [अर्थ] असम्भव होता है, वहाँ-वहाँ लक्षणा होती है। जैसे किसी सत्यवादी विद्वान् पुरुष ने किसी से कहा कि ‘खेतों में मञ्चान पुकारते हैं’ इस वाक्य में लक्षणा से यह अर्थ होता है कि मञ्चान के ऊपर मनुष्य पुकार रहे हैं, इसी प्रकार से यहाँ भी जानना कि विद्या के प्रकाश होने का सम्भव मनुष्यों में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं। इसमें ‘तेभ्यः०’ इत्यादि शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण लिखा है। उन चार मनुष्यों के ज्ञान के बीच में वेदों का प्रकाश करके उनसे ब्रह्मादि के बीच में वेदों का प्रकाश कराया था।

सत्यमेवमेतत्। परमेश्वरेण तेभ्यो ज्ञानं दत्तं, ज्ञानेन तैर्वेदानां रचनं कृतमिति विज्ञायते?

प्रश्न—सत्य बात है कि ईश्वर ने उन को ज्ञान दिया होगा और उनने अपने ज्ञान से वेदों का रचन किया होगा?

मैवं विज्ञायि। ज्ञानं किंप्रकारकं दत्तम्? वेदप्रकारकम्। तदीश्वरस्य वा तेषाम्? ईश्वरस्यैव। पुनस्तेनैव प्रणीता वेदा आहोस्वित् तैश्च? यस्य ज्ञानं तेनैव प्रणीताः। पुनः किमर्था शङ्का कृता तैरेव रचिता इति? निश्चयकरणार्था।

उत्तर—ऐसा तुमको कहना उचित नहीं, क्योंकि तुम यह भी जानते हो कि ईश्वर ने उनको ज्ञान किस प्रकार का दिया था?

उत्तर—उनको वेदरूप ज्ञान दिया था।

प्रश्न—अच्छा तो मैं आपसे पूछता हूँ कि वह ज्ञान ईश्वर का है वा उनका?

उत्तर—वह ज्ञान ईश्वर का ही है।

प्रश्न—फिर आपसे मैं पूछता हूँ कि वेद ईश्वर के बनाये हैं वा उनके?

उत्तर—जिसका ज्ञान है उसीने वेदों को बनाया।

प्रश्न—फिर उन्हीं ने वेद रचे हैं यह शङ्का आपने क्यों की थी?

उत्तर—निश्चय करने और कराने के लिये।

चार ऋषियों को वेदज्ञान दिये जाने का कारण

ईश्वरो न्यायकार्यस्ति वा पक्षपाती? न्यायकारी। तर्हि चतुर्णामेव हृदयेषु वेदाः प्रकाशिताः कुतो न सर्वेषामिति?

प्रश्न—ईश्वर न्यायकारी है वा पक्षपाती?

उत्तर—न्यायकारी।

प्रश्न—जब परमेश्वर न्यायकारी है तो सब के हृदयों में वेदों का प्रकाश क्यों नहीं किया, क्योंकि चारों के हृदयों में प्रकाश करने से ईश्वर में पक्षपात आता है?

अत्राह—अनेनेश्वरे पक्षपातस्य लेशोऽपि नैवागच्छति, किन्त्वनेन तस्य न्यायकारिणः परमात्मनः सम्यङ्न्यायः प्रकाशितो भवति। कुतः? न्यायेत्यस्यैव नामास्ति यो यादृशं कर्म कुर्यात्तस्मै तादृशमेव फलं दद्यात्। अत्रैवं वेदितव्यम्—तेषामेव पूर्वपुण्यमासीद्यतः खल्वेतेषां हृदये वेदानां प्रकाशः कर्त्तुं योग्योऽस्ति।

उत्तर—इससे ईश्वर में पक्षपात का लेश भी कदापि नहीं आता, किन्तु उस न्यायकारी परमात्मा का साक्षात् न्याय ही प्रकाशित होता है। क्योंकि न्याय उसको कहते हैं कि जो जैसा कर्म करे, उसको वैसा ही फल दिया जाय। अब जानना चाहिये कि उन्हीं चार पुरुषों का ऐसा पूर्वपुण्य था कि उनके हृदय में वेदों का प्रकाश किया गया।

जीव, कर्म और जगत् ये तीन अनादि

किं च ते तु सृष्टेः प्रागुत्पन्नास्तेषां पूर्वपुण्यं कुत आगतम्? अत्र ब्रूमः—सर्वे जीवा स्वरूपतोऽनादयस्तेषां कर्म्माणि सर्वं कार्यं जगच्च प्रवाहेणैवानादीनि सन्तीति। तेषामनादित्वस्य प्रमाणपूर्वकं प्रतिपादनमग्रे करिष्यते।

प्रश्न—वे चार पुरुष तो सृष्टि के आदि में उत्पन्न हुए थे, उनका पूर्वपुण्य कहाँ से आया?

उत्तर—जीव, जीवों के कर्म और स्थूल कार्य जगत् ये तीनों अनादि हैं, जीव और कारणजगत् स्वरूप से अनादि हैं, कर्म और स्थूल कार्यजगत् प्रवाह से अनादि हैं। इसकी व्याख्या प्रमाणपूर्वक आगे की जायेगी।

वेदमन्त्रों के छन्दों का रचयिता भी ईश्वर

किं गायत्र्यादिच्छन्दोरचनमपीश्वरेणैव कृतम्? इयं कुतः शङ्काभूत्? किमीश्वरस्य गायत्र्यादिच्छन्दोरचनज्ञानं नास्ति? अस्त्येव तस्य सर्वविद्यावत्त्वात्। अतो निर्मूला सा शङ्कास्ति।

प्रश्न—क्या गायत्र्यादि छन्दों का रचन ईश्वर ने ही किया है?

उत्तर—यह शङ्का आपको कहाँ से हुई?

प्रश्न—मैं तुमसे पूछता हूँ क्या गायत्र्यादि छन्दों के रचने का ज्ञान ईश्वर को नहीं है?

उत्तर—ईश्वर को सब ज्ञान है। अच्छा तो ईश्वर के समस्त विद्यायुक्त होने से आपकी यह शङ्का भी निर्मूल है?

ब्रह्मा को वेदरचयिता बनाने वाला आख्यान मिथ्या

चतुर्मुखेन ब्रह्मणा वेदा निरमायिषतेत्यैतिह्यम्? मैवं वाच्यम्। ऐतिह्यस्य शब्दप्रमाणान्तर्भावात्। ‘आप्तोपदेशः शब्दः’ न्या॰सू॰२.२.७) अस्यैवोपरि ‘आप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा, यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापयिषया प्रयुक्त उपदेष्टा, साक्षात् करणमर्थस्याऽऽप्तिस्तया प्रवर्त्तत इत्याप्तः’ (न्या॰सू॰१.१.७) इति न्यायभाष्ये वात्स्यायनोक्तेः। अतः सत्यस्यैवैतिह्यत्वेन ग्रहणं नानृतस्य। यत्सत्यप्रमाणमाप्तोपदिष्टमैतिह्यं तद् ग्राह्यं, नातो विपरीतमिति, अनृतस्य प्रमत्तगीतत्वात्।

प्रश्न—चार मुख के ब्रह्माजी ने वेदों को रचा, ऐसे इतिहास को हम लोग सुनते हैं।

उत्तर—ऐसा मत कहो, क्योंकि इतिहास को शब्दप्रमाण के भीतर गिना है। (आप्तो॰) अर्थात् सत्यवादी विद्वानों का जो उपदेश है, उसको शब्दप्रमाण में गिनते हैं, ऐसा न्यायदर्शन में गौतमाचार्य ने लिखा है, तथा शब्दप्रमाण से जो युक्त है वही इतिहास मानने के योग्य है, अन्य नहीं। इस सूत्र के भाष्य में वात्स्यायन मुनि ने आप्त का लक्षण कहा है कि—जो साक्षात् सब पदार्थविद्याओं का जाननेवाला, कपट आदि दोषों से रहित धर्मात्मा है, कि जो सदा सत्यवादी, सत्यमानी और सत्यकारी है, जिसको पूर्णविद्या से आत्मा में जिस प्रकार का ज्ञान है, उसके कहने की इच्छा की प्रेरणा से सब मनुष्यों पर कृपादृष्टि से सब सुख होने के लिये सत्य उपदेश का करनेवाला है, और जो पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त सब पदार्थों का यथावत् साक्षात् करना और उसीके अनुसार वर्त्तना इसी का नाम ‘आप्ति’ है, इस आप्ति से जो युक्त हो, उसको ‘आप्त’ कहते हैं।’ उसीके उपदेश का प्रमाण होता है, इससे विपरीत मनुष्य का नहीं, क्योंकि सत्य वृत्तान्त का नाम इतिहास है, अनृत का नहीं। सत्यप्रमाणयुक्त जो इतिहास है, वही सब मनुष्यों को ग्रहण करने के योग्य है, इससे विपरीत इतिहास का ग्रहण करना किसी को योग्य नहीं, क्योंकि प्रमादी पुरुष के मिथ्या कहने का इतिहास में ग्रहण ही नहीं होता।

व्यास को वेद का संग्रहकर्त्ता बताने वाला आख्यान मिथ्या

एवमेव व्यासेनर्षिभिश्च वेदा रचिता  इत्याद्यपि मिथ्यैवास्तीति मन्यताम्। नवीनपुराणग्रन्थानां तन्त्रग्रन्थानां च वैयर्थापत्तेश्चेति।

इसी प्रकार व्यासजी ने चारों वेदों की संहिताओं का संग्रह किया है, इत्यादि इतिहासों को भी मिथ्या ही जानना चाहिये। जो आजकल के बने ब्रह्मवैवर्तादि पुराण और ब्रह्मयामल आदि तन्त्रग्रन्थ हैं, इनमें कहे इतिहासों का प्रमाण करना किसी मनुष्य को योग्य नहीं, क्योंकि इनमें असम्भव और अप्रमाण कपोलकल्पित मिथ्या इतिहास बहुत लिख रक्खे हैं। और जो सत्यग्रन्थ शतपथ-ब्राह्मणादि हैं, उनके इतिहासों का कभी त्याग नहीं करना चाहिये।

मन्त्र और सूक्तों पर निर्दिष्ट ऋषि मन्त्रकृत् नहीं

यो मन्त्रसूक्तानामृषिर्लिखितस्तेनैव तद्रचितमिति कुतो न स्यात्?

प्रश्न—जो सूक्त और मन्त्रों के ऋषि लिखे जाते हैं, उन्होंने ही वेद रचे हों, ऐसा क्यों नहीं माना जाए?

मैवं वादि। ब्रह्मादिभिरपि वेदानामध्ययनश्रवणयोः कृतत्वात्। ‘यो वै ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै॰’ इति श्वेताश्वतरोपनिषदादिवचनस्य (अष्टा॰६.१८) विद्यमानत्वात्।

उत्तर—ऐसा मत कहो, क्योंकि ब्रह्मादि ने भी वेदों को पढ़ा है। सो श्वेताश्वतर आदि उपनिषदों में यह वचन है कि—‘जिसने ब्रह्मा को उत्पन्न किया और ब्रह्मादि को सृष्टि के आदि में अग्नि आदि के द्वारा वेदों का उपदेश किया है, उसी परमेश्वर के शरण को हम लोग प्राप्त होते हैं।’

एवं यदर्षीणामुत्पत्तिरपि नासीत् तदा ब्रह्मादीनां समीपे वेदानां वर्त्तमानत्वात्। तद्यथा—

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।

दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम्॥१॥ (मनु॰१.२३)

अध्यापयामास पितॄन् शिशुराङ्गिरसः कविः॥२॥ (मनु॰२.१५१)

इति मनुसाक्ष्यत्वात्। अग्न्यादीनां सकाशाद् ब्रह्मापि वेदानामध्ययनं चक्रेऽन्येषां व्यासादीनां तु का कथा!

इसी प्रकार ऋषियों ने भी वेदों को पढ़ा है। क्योंकि जब मरीच्यादि ऋषि और व्यासादि मुनियों का जन्म भी नहीं हुआ था, उस समय भी ब्रह्मादि के समीप वेद वर्तमान थे। इसमें मनु के श्लोकों की भी साक्षी है कि—‘पूर्वोक्त अग्नि, वायु, रवि और अङ्गिरा से ब्रह्माजी ने वेदों को पढ़ा था।’ जब ब्रह्माजी ने वेदों को पढ़ा था तो व्यासादि और हम लोगों की तो कथा क्या ही कहनी है!

संहिताओं के वेद और श्रुति नामकरण में प्रयोजन

कथं वेद श्रुतिश्च द्वे नाम्नी ऋक्संहितादीनां जाते इति?

प्रश्न—वेद और श्रुति ये दो नाम ऋग्वेदादि संहिताओं के क्यों हुए हैं?

अर्थवशात्। विद ज्ञाने, विद सत्तायाम्, विद्लृ लाभे, विद विचारणे, एतेभ्यो ‘हलश्च’ इति सूत्रेण करणाधिकरणकारकयोर्घञ् प्रत्यये कृते वेदशब्दः साध्यते। तथा श्रु श्रवणे, इत्यस्माद्धातोः करणकारके ‘क्तिन्’ प्रत्यये कृते श्रुतिशब्दो व्युत्पाद्यते। विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ति विन्दन्ते लभन्ते, विन्दते विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सर्वाः सत्यविद्या यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति ते ‘वेदाः’।

उत्तर—अर्थभेद से। क्योंकि एक ‘विद’ धातु ज्ञानार्थ है, दूसरा ‘विद’ सत्तार्थ है, तीसरे ‘विद्लृ’ का लाभ अर्थ है, चौथे ‘विद’ का अर्थ विचार है। इन चार धातुओं से से करण और अधिकरण कारक में ‘घञ्’ प्रत्यय करने से ‘वेद’ शब्द सिद्ध होता है। तथा ‘श्रु’ धातु श्रवण अर्थ में है, इससे करणकारक में ‘क्तिन्’ प्रत्यय के होने से ‘श्रुति’ शब्द सिद्ध होता है। जिनके पढ़ने से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनको पढ़के विद्वान् होते हैं, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनसे ठीक-ठीक सत्यासत्य का विचार मनुष्यों को होता है, इससे ऋक्संहितादि का ‘वेद’ नाम है।

तथाऽऽदिसृष्टिमारभ्याद्यपर्यन्तं ब्रह्मादिभिः सर्वाः सत्यविद्याः श्रूयन्तेऽनया सा ‘श्रुतिः’। न कस्यचिद्देहधारिणः सकाशात्कदाचित्कोऽपि वेदानां रचनं दृष्टवान्। कुतः? निरवयवेश्वरात् तेषां प्रादुर्भावात्। अग्निवाय्वादित्याङ्गिरसस्तु निमित्तीभूता। वेदप्रकाशार्थमीश्वरेण कृता इति विज्ञेयम्। तेषां ज्ञानेन वेदानामनुत्पत्तेः। वेदेषु शब्दार्थसम्बन्धाः परमेश्वरादेव प्रादुर्भूताः तस्य पूर्णविद्यावत्त्वात्। अतः किं सिद्धम्? अग्निवायुरव्यङ्गिरो मनुष्यदेहधारिजीवद्वारेण परमेश्वरेण श्रुतिर्वेदः प्रकाशीकृत इति बोध्यम्।

वैसे ही सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त और ब्रह्मादि से लेके हम लोग पर्यन्त जिससे सब सत्यविद्याओं को सुनते आते हैं, इससे वेदों का ‘श्रुति’ नाम पड़ा है। क्योंकि किसी देहधारी ने वेदों के बनानेवाले को साक्षात् कभी नहीं देखा, इस कारण से जाना गया कि वेद निराकार ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं, और उनको सुनते-सुनाते ही आज पर्यन्त सब लोग चले आते हैं। तथा अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा इन चारों मनुष्यों को जैसे वादित्र को कोई बजावे वा काठ की पुतली को चेष्टा करावे, इसी प्रकार ईश्वर ने उनको निमित्तमात्र किया था, क्योंकि उनके ज्ञान से वेदों की उत्पत्ति नहीं हुई। किन्तु इससे यह जानना कि वेदों में जितने शब्द, अर्थ और सम्बन्ध हैं, वे सब ईश्वर ने अपने ही ज्ञान से उनके द्वारा प्रकट किये हैं।

वेदोत्पत्तिकाल

वेदानामुत्पत्तौ कियन्ति वर्षाणि व्यतीतानि?

प्रश्न—वेदों की उत्पत्ति में कितने वर्ष होगये हैं?

अत्रोच्यते—एको वृन्दः, षण्णवतिः कोट्योऽष्टौ लक्षाणि, द्विपञ्चाशत्सहस्राणि, नव शतानि, षट्सप्ततिश्चैतावन्ति १९६०८५२९७६ वर्षाणि व्यतीतानि। सप्तसप्ततितमोऽयं संवत्सरो वर्त्तत इति वेदितव्यम्। एतावन्त्येव वर्षाणि वर्त्तमानकल्पसृष्टेश्चेति।

उत्तर—एक वृन्द, छानवे करोड़, आठ लाख, बावन हजार, नव सौ, छहत्तर अर्थात् (१९६०८५२९७६) वर्ष वेदों की और जगत् की उत्पत्ति में हो गये हैं और यह संवत् ७७ सतहत्तरवाँ वर्त्त रहा है, [ऐसा जानना चाहिये। इतना ही समय वर्तमान कल्पसृष्टि का है।]

वेदोत्पत्ति और सृष्टि के काल का परिगणन

कथं विज्ञायते ह्येतावन्त्येव वर्षाणि व्यतीतानि?

प्रश्न—यह कैसे निश्चय हो कि इतने ही वर्ष वेद और जगत् की उत्पत्ति में बीत गये हैं।

अत्राह—अस्यां वर्त्तमानायां सृष्टौ वैवस्वतस्य सप्तमस्यास्य मन्वन्तरस्येदानीं वर्त्तमानत्वादस्मात्पूर्वं षण्णां मन्वन्तराणां व्यतीतत्वाच्चेति। तद्यथा—स्वायम्भवः स्वारोचिष औत्तमिस्तामसो रैवतश्चाक्षुषो वैवस्वतश्चेति सप्तैते मनवस्तथा सावर्ण्यादय आगामिनः सप्त चैते मिलित्वा १४ चतुर्दशैव भवन्ति।

उत्तर—यह जो वर्त्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें (७) वैवस्वत मनु का वर्त्तमान है, इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं। १.स्वायम्भव, २.स्वारोचिष, ३.औत्तमि, ४.तामस, ५.रैवत, ६.चाक्षुष ये छः तो बीत गये हैं और ७ सातवाँ वैवस्वत वर्त्त रहा है, और सावर्णि आदि ७ सात मन्वन्तर आगे भोगेंगे। ये सब मिलके १४ चौदह मन्वन्तर होते हैं।

तत्रैकसप्ततिश्चतुर्युगानि ह्यैकैकस्य मनोः परिमाणं भवति। ते चैकस्मिन् ब्राह्मदिने १४ चतुर्दशभुक्तभोगा भवन्ति एकसहस्रं १००० चतुर्युगानि ब्राह्मदिनस्य परिमाणं भवति। ब्राह्म्या रात्रेरपि तावदेव परिमाणं विज्ञेयम्। सृष्टेर्वर्त्तमानस्य दिनसंज्ञास्ति, प्रलयस्य च रात्रिसंज्ञेति।  अस्मिन् ब्राह्मदिने षट् मनवस्तु व्यतीताः सप्तमस्य वैवस्वतस्य वर्त्तमानस्य मनोरष्टाविंशतितमोऽयं कलिर्वर्त्तते। तत्रास्य वर्त्तमानस्य कलियुगस्यैतावन्ति ४९७६ चत्वारिसहस्राणि, नवशतानि, षट्सप्ततिश्च वर्षाणि तु गतानि, सप्तसप्ततिमोऽयं संवत्सरो वर्त्तते। यमार्या विक्रमस्यैकोनविंशतिशतं त्रयस्त्रिंशत्तमोत्तरं संवत्सरं वदन्ति।

और एकहत्तर चतुर्युगियों का नाम मन्वन्तर धरा गया है, सो उसकी गणना इस प्रकार से है कि (१७२८०००) सत्रह लाख, अट्ठाईस हजार, वर्षों का नाम सतयुग रक्खा है। (१२९६०००) बारह लाख, छानवे हजार वर्षों का नाम त्रेता। (८६४०००) आठ लाख, चौंसठ हजार वर्षों का नाम कलियुग रक्खा है। तथा आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेके एक वर्ष पर्यन्त भी काल की सूक्ष्म और स्थूल संज्ञा बाँधी है। और इन चारों युगों के (४३२००००) तियालीस लाख, बीस हजार वर्ष होते हैं, जिनका चतुर्युगी नाम है।

एकहत्तर (७१) चतुर्युगियों के अर्थात् (३०६७२००००) तीस करोड़, सरसठ लाख, बीस हजार वर्षों की एक मन्वन्तर संज्ञा की है, और ऐसे-ऐसे छः मन्वन्तर मिल कर अर्थात् (१८४०३२००००) एक अरब, चौरासी करोड़, तीन लाख, बीस हजार वर्ष हुए, और सातवें मन्वन्तर के भोग में यह (२८) अट्ठाईसवीं चतुर्युगी है। इस चतुर्युगी में कलियुग के (४९७६) चार हजार, नवसौ, छहत्तर वर्षों का भोग हो चुका है और बाकी (४२७०२४) चार लाख, सत्ताईस हजार, चौबीस वर्षों का भोग होने वाला है। जानना चाहिये कि (१२०५३२९७६) बारह करोड़, पांच लाख, बत्तीस हजार, नव सौ, छहत्तर वर्ष तो वैवस्वत मनु के भोग हो चुके हैं और (१८६१८७०२४) अठारह करोड़, एकसठ लाख, सत्तासी हजार, चौबीस वर्ष भोगने के बाकी रहे हैं। इनमें से यह वर्तमान वर्ष (७७) सतहत्तरवाँ हैं, जिसको आर्य लोग विक्रम का (१९३३) उन्नीस सौ तेतीसवाँ संवत् कहते हैं।

मनुस्मृति के अनुसार कालपरिगणन

अत्र विषये प्रमाणम्—

ब्राह्मस्य तु क्षपाहस्य यत्प्रमाणं समासतः।

एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन्निबोधत॥१॥ मनु॰१।६८

[ब्रह्मा के दिन-रात का और चारों (सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि) युगों का जो परिमाण है, उसे आप लोग संक्षेप में क्रमशः सुनें।]

चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तु कृतं युगम्।

तस्य तावच्छती सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः॥२॥ मनु॰१।६९

[चार हजार वर्ष सत्ययुग का कालपरिमाण कहा है और उतना ही सत्ययुग के संध्या और संध्याश का परिमाण है अर्थात् तीनों को मिलाकर १२००० वर्ष का परिमाण है।]

इतरेषु ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु च त्रिषु।

एकापायेन वर्त्तन्ते सहस्राणि शतानि च॥३॥ मनु॰१।७०

[सत्ययुग की सन्धि और संध्यांश के सहित सत्ययुग के कालपरिमाण में से १०००-१००० तथा सन्ध्या और सन्ध्यांश में से १००-१०० वर्ष प्रत्येक में कम करने से त्रेता, द्वापर और कलियुग का कालपरिमाण होता है।]

यदेतत् परिसंख्यातमादावेव चतुर्युगम्।

एतद् द्वादशसाहस्रं देवानां युगमुच्यते॥४॥ मनु॰१।७१

[जो यह मनुष्यों के चार युगों का कालपरिमाण (१२०००) बतलाया गया है, वह १२००० चारों युगों का सम्मिलित काल देवों का एक युग होता है।]

दैविकानां युगानां तु सहस्रं परिसंख्यया।

ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावती रात्रिरेव च॥५॥ मनु॰१।७२

[देवों के एक सहस्र युग ब्रह्मा के एक दिन के बराबर हैं और उतना ही काल रात का भी जानना चाहिये।]

तद्वै युगसहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः।

रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदो जनाः॥६॥ मनु॰१।७३

[देवों के १००० युग के बराबर ब्रह्मा का पुण्य दिन और उतने ही परिमाण का ब्रह्मा की रात्रि होती है। उसे जो लोग जानते हैं, वे अहोरात्र के ज्ञाता कहे जाते हैं।]

यत्प्राग्द्वादशसाहस्रमुदितं दैविकं युगम्।

तदेकसप्ततिर्गुणं मन्वन्तरमिहोच्यते॥७॥ मनु॰१।७९

[जो पहले (मनु॰१.७१) १२००० वर्षों के बराबर ‘देवों का एक युग’ कहा गया है, उसके इकहत्तर गुना कालपरिमाण को इस शास्त्र में ‘मन्वन्तर’ कहा गया है।]

मन्वन्तराण्यसंख्यानि सृष्टिः संहार एव च।

क्रीडन्निवैतत्कुरुते परमेष्ठी पुनः पुनः॥८॥ मनु॰१।८०

[मन्वन्तर, सृष्टि और प्रलय ये सभी असंख्य हैं। ब्रह्मा क्रीडा करते हुए इस संसार की बार-बार सृष्टि करते हैं।]

कालस्य परिमाणार्थं ब्राह्माहोरात्रादयः सुगमबोधार्थाः संज्ञाः क्रियन्ते। यतः सहजतया जगदुत्पत्तिप्रलययोर्वर्षाणां वेदोत्पत्तेश्च परिगणनं भवेत्। मन्वन्तरपर्यावृत्तौ सृष्टेर्नैमित्तिकगुणानामपि पर्यावर्त्तनं किञ्चित् किञ्चिद्भवत्यतो मन्वन्तरसंज्ञा क्रियते।

ब्राह्मदिन और ब्राह्मरात्रि अर्थात् ब्रह्म जो परमेश्वर उसने संसार के वर्तमान और प्रलय की संज्ञा की है, इसलिये इसका नाम ब्राह्मदिन है। इसी प्रकरण में मनुस्मृति के श्लोक साक्षी के लिये लिख चुके हैं, सो देख लेना। इन श्लोकों में दैववर्षों की गणना की है, अर्थात् चारों युगों के बारह हजार (१२०००) वर्षों की ‘दैवयुग’ संज्ञा की है। इसी प्रकार असंख्यात मन्वन्तरों में कि जिनकी संख्या नहीं हो सकती, अनेक बार सृष्टि हो चुकी है और अनेक बार होगी। सो उस सृष्टि को सदा से सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर सहज स्वभाव से रचता, पालन और प्रलय करता है और सदा ऐसे ही करेगा। क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति, वर्तमान और प्रलय और वेदों की उत्पत्ति के वर्षों को मनुष्य लोग सुख से गिन लें, इसीलिये यह ब्राह्मदिन आदि संज्ञा बाँधी है। और सृष्टि का स्वभाव नया पुराना प्रति मन्वन्तर में बदलता जाता है, इसीलिये मन्वन्तर संज्ञा बाँधी है। वर्त्तमान सृष्टि की कल्पसंज्ञा और प्रलय की विकल्पसंज्ञा की है।

कालगणना

अत्रैवं सङ्ख्यातव्यम्—

एकं दश शतं चैव सहस्रमयुतं तथा।

लक्षं च नियुतं चैव कोटिरर्बुदमेव च॥१॥

वृन्दः खर्वो निखर्वश्च शङ्खः पद्मं च सागरः।

अन्त्यं मध्यं परार्द्ध्यं च दशवृद्ध्या यथाक्रमम्॥२॥

इति सूर्यसिद्धान्तादिषु सङ्ख्यायते। अनया रीत्या वर्षादिगणना कार्येति।

और इन वर्षों की गणना इस प्रकार से करना चाहिये कि (एकं दशशतं चैव॰) एक (१), दश (१०), हजार (१०००), दश हजार (१००००), लाख (१०००००), अयुत (१००००००), करोड़ (१०००००००), अर्बुद (१००००००००), वृन्द (१०००००००००), खर्व (१००००००००००), निखर्व (१०००००००००००), शंख (१००००००००००००), पद्म (१०००००००००००००), सागर (१००००००००००००००), अन्त्य (१०००००००००००००००), मध्य (१००००००००००००००००), और परार्द्ध्य (१०००००००००००००००००) और दश-दश गुणा बढ़ाकर इसी गणित से सूर्यसिद्धान्त आदि ज्योतिषग्रन्थों में गिनती की है।

सहस्रसंज्ञा

‘सहस्रस्य प्रमासि सहस्रस्य प्रतिमासि॥’ (यजु॰१५.६५) ‘सर्वं वै सहस्रं सर्वस्य दातासि॥’ (श॰ब्रा॰७.५.२.१३) सर्वस्य जगतः सर्वमिति  नामास्ति। कालस्य चानेन सहस्रमहायुगसंख्यया परिमितस्य दिनस्य नक्तस्य च ब्रह्माण्डस्य प्रमा परिमाणस्य कर्त्ता परमेश्वरोऽस्ति। मन्त्रस्यास्य सामान्यार्थे वर्त्तमानत्वात् सर्वमभिवदतीति। एवमेवाग्रेऽपि योजनीयम्।

(सहस्रस्यप्र॰) सब संसार की सहस्र संज्ञा है तथा पूर्वोक्त ब्राह्मदिन और रात्रि की भी सहस्रसंज्ञा ली जाती है, क्योंकि यह मन्त्र सामान्य अर्थ में वर्तमान है। सो हे परमेश्वर! आप इस हजार चतुर्युगी का दिन और रात्रि को प्रमाण अर्थात् निर्माण करने वाले हो।

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कालगणना

ज्योतिषशास्त्रे प्रतिदिनचर्याऽभिहिताऽऽर्य्यैः क्षणमारभ्य कल्पकल्पान्तस्य गणितविद्यया स्पष्टं परिगणनं कृतमद्यपर्यन्तमपि क्रियते प्रतिदिनमुच्चार्यते ज्ञायते चातः कारणादियं व्यवस्थैव सर्वैर्मनुष्यैः स्वीकर्त्तुं योग्यास्ति; नान्येति निश्चयः।

इसी प्रकार ज्योतिषशास्त्र में यथावत् वर्षों की संख्या आर्य लोगों ने गिनी है, सो सृष्टि की उत्पत्ति से लेके आज पर्यन्त दिन-दिन गिनते और क्षण से लेके कल्पान्त की गणित विद्या को प्रसिद्ध करते चले आते हैं अर्थात् परम्परा से सुनते-सुनाते लिखते-लिखाते और पढ़ते-पढ़ाते आज पर्यन्त हम लोग चले आते हैं। यही व्यवस्था सृष्टि और वेदों की उत्पत्ति के वर्षों की ठीक है, और सब मनुष्यों को इसी को ग्रहण करना योग्य है। क्योंकि आर्य लोग नित्यप्रति ‘ओं तत्सत्’ परमेश्वर के इन तीन नामों का प्रथम उच्चारण करके कार्यों का आरम्भ और परमेश्वर का ही नित्य धन्यवाद करते चले आते हैं कि आनन्द में आज पर्यन्त परमेश्वर की सृष्टि और हम लोग बने हुए हैं, और बहीखाते की नाईं लिखते-लिखाते और पढ़ते-पढ़ाते चले आये हैं कि पूर्वोक्त ब्राह्मदिन के दूसरे प्रहर के ऊपर मध्याह्न के निकट दिन आया है और जितने वर्ष वैवस्वत मनु के भोग होने को बाकी हैं उतने ही मध्याह्न में बाकी रहे हैं, इसीलिये यह लेख है—(श्री ब्रह्मणो द्वितीये प्रहरार्द्धे॰)

कालगणना की भारतीय परम्परा

कुतो ह्यार्यैर्नित्यम् ‘ओं तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहारार्द्धे वैवस्वते मन्वन्तरेऽष्टाविंशतिशततमे कलियुगे कलिप्रथमचरणेऽमुकसंवत्सरायनर्तुमासपक्षदिननक्षत्रलग्नमुहुर्तेऽत्रेदं कृतं क्रियते च’ इत्याबालवृद्धैः प्रत्यहं विदितत्वादितिहासस्यास्य सर्वत्रार्यावर्त्तदेशे वर्त्तमानत्वात् सर्वत्रैकरसत्वाद् अशक्येयं व्यवस्था केनापि विचालयितुमिति विज्ञायताम्। अन्यद्युगव्याख्यानमग्रे करिष्यते तत्र द्रष्टव्यम्।

यह वैवस्वतमनु का वर्त्तमान है, इसके भोग में यह (२८) अट्ठाईसवाँ कलियुग है। कलियुग के प्रथम चरण का भोग हो रहा है तथा वर्ष, ऋतु, अयन, मास, पक्ष, दिन, नक्षत्र, मुहूर्त, लग्न और पल आदि समय में हमने फलाना काम किया था और करते हैं, अर्थात् जैसे विक्रम संवत् १९३३ फाल्गुण मास, कृष्णपक्ष, षष्ठी, शनिवार के दिन चतुर्थ प्रहर के आरम्भ में यह बात हमने लिखी है, इसी प्रकार से सब व्यवहार आर्य लोग बालक से वृद्ध पर्यन्त करते और जानते चले आये हैं। जैसे बहीखाते में मिती डालते हैं, वैसे ही महीना और वर्ष बढ़ाते-घटाते चले जाते हैं। इसी प्रकार आर्य लोग तिथिपत्र में भी वर्ष, मास और दिन आदि लिखते चले आते हैं। और यही इतिहास आज पर्यन्त सब आर्यावर्त्त देश में एकसा वर्त्तमान हो रहा है। और सब पुस्तकों में भी इस विषय में एक ही प्रकार का लेख पाया जाता है, किसी प्रकार का इस विषय में विरोध नहीं है। इसीलिये इसको अन्यथा करने में किसी का सामर्थ्य नहीं हो सकता। क्योंकि जो सृष्टि की उत्पत्ति से लेके बराबर मिती वार लिखते न आते तो इस गिनती का हिसाब ठीक-ठीक आर्य लोगों को भी जानना कठिन होता, अन्य मनुष्यों का तो क्या ही कहना है। और यह भी सिद्ध होता है कि सृष्टि के आरम्भ से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग ही बड़े-बड़े विद्वान् और सभ्य होते चले आये हैं।

विधर्मियों के द्वारा विद्यापुस्तकों का नाश

जब जैन और मुसलमान आदि लोग इस देश के इतिहास और विद्यापुस्तकों का नाश करने लगे तब आर्य लोगों ने सृष्टि के गणित का इतिहास कण्ठस्थ कर लिया, और जो पुस्तक ज्योतिषशास्त्र के बच गये हैं उनमें और उनके अनुसार जो वार्षिक पञ्चाङ्गपत्र बनते जाते हैं इनमें भी मिती से मिती बराबर लिखी चली आती है, इसको अन्यथा कोई नहीं कर सकता। यह वृत्तान्त इतिहास का इसलिये है कि पूर्वापर काल का प्रमाण यथावत् सब को विदित रहे और सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय, तथा वेदों की उत्पत्ति के वर्षों की गिनती में किसी प्रकार का भ्रम किसी को न हो, सो यह बड़ा उत्तम काम है। इसको सब लोग यथावत् जान लेवें। परन्तु इस उत्तम व्यवहार को लोगों ने टका कमाने के लिये बिगाड़ रक्खा है, यह शोक की बात है। और टके के लोभ ने भी जो इसके पुस्तकव्यवहार को बना रक्खा, नष्ट न होने दिया, यह बड़े हर्ष की बात है। जो चारों युगों के चार भेद और उनके वर्षों की घट-बढ़ संख्या क्यों हुई है, इसकी व्याख्या आगे करेंगे, वहाँ देख लेना चाहिये। यहाँ इसका प्रसङ्ग नहीं है, इसलिये नहीं लिखा।

विलसनादि के वेदविषयक विचार भ्रान्तिमूलक

एतावता कथनेनैवाध्यापकैर्विलसनमोक्षमूलराद्यभिधैर्यूरोपाख्यखण्डस्थैर्मनुष्यरचितो वेदोऽस्ति श्रुतिर्नास्तीति यदुक्तं, यच्चोक्तं चतुर्विंशतिरेकोनत्रिंशत् त्रिंशदेकत्रिंशच्च शतानि वर्षाणि वेदोत्पत्तौ व्यतीतानीति तत्सर्वं भ्रममूलमस्तीति वेद्यम्। तथैव प्राकृतभाषया व्याख्यानकारिभिरप्येवमुक्तं तदपि भ्रान्तमेवास्तीति च।

इससे जो अध्यापक विलसन साहेब और अध्यापक मोक्षमूलर साहेब आदि यूरोपखण्डवासी विद्वानों ने बात कही है कि— वेद मनुष्य के रचे हैं, किन्तु श्रुति नहीं है, उनकी यह बात ठीक नहीं है, और दूसरी यह है—कोई कहता है (२४००) चौबीस सौ वर्ष वेदों की उत्पत्ति को हुए, कोई (२९००) उनतीस सौ वर्ष, कोई (३०००) तीन हजार वर्ष और कोई कहता है (३१००) एकतीस सौ वर्ष वेदों को उत्पन्न हुए बीते हैं, उनकी यह भी बात झूठी है। क्योंकि उन लोगों ने हम आर्य लोगों की नित्यप्रति की दिनचर्या का लेख और संकल्प पठनविद्या को भी यथावत् न सुना और न विचारा है, नहीं तो इतने ही विचार से यह भ्रम उनको नहीं होता। इससे यह जानना अवश्य चाहिये कि वेदों की उत्पत्ति परमेश्वर से ही हुई है, और जितने वर्ष अभी ऊपर गिन आये हैं, उतने ही वर्ष वेदों और जगत् की उत्पत्ति में भी हो चुके हैं। इससे क्या सिद्ध हुआ कि जिन-जिन ने अपनी-अपनी देश भाषाओं में अन्यथा व्याख्यान वेदों के विषय में किया है, उन-उन का भी व्याख्यान मिथ्या है। क्योंकि जैसा प्रथम लिख आये हैं जब पर्यन्त हजार चतुर्युगी व्यतीत न हो चुकेंगी, तब पर्यन्त ईश्वरोक्त वेद का पुस्तक, यह जगत् और हम सब मनुष्य लोग भी ईश्वर के अनुग्रह से सदा वर्त्तमान रहेंगे।

॥इति वेदोत्पत्तिविचारः॥


SOURCE:  ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका – दयानन्दसरस्वतीविरचिता

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