Excerpt from Interview Given by RSS Sarsanghachalak Shri Mohan Bhagwat to Panchjanya Editor Prafulla Ketkar
Original Hindi Text
संघ को राजनीति के चश्मे से देखने की प्रवृति रही है और राजनीतिक घटनाओं पर संघ का पक्ष जानने के लिए मीडिया में भी बहुत ललक रहती है। संघ का राजनीति से रिश्ता कैसा है?
समाज में अन्यान्य कारणों से यह राजनीतिक चश्मा पहले से ही चढ़ा है। इसलिए संघ(RSS) को ही नहीं, हर बात को राजनीति के चश्मे से देखने की प्रवृति है। बाकी समाज में कुछ अच्छा या गड़बड़ चल रहा हो, इस पर कोई ध्यान नहीं देता। राजनीति पर ध्यान जरूर देगा। लेकिन चालू राजनीति से संघ ने अपने-आप को अपने जन्म से ही जान-बूझकर दूर रखा है। वोटों की राजनीति, चुनाव की राजनीति, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति, इससे संघ का कोई संबंध नहीं रहता। राजनीति की वे बातें, जो राष्ट्रनीति को प्रभावित करती हैं अर्थात् राष्ट्र के हित के संबंध के जो विषय हैं – हिन्दू हित, देश हित, राष्ट्रहित, वस्तुत: समानांतर और समानार्थी हैं- उसके लिए राजनीतिक मोड़ जैसे मिलना चाहिए, वैसे मिलता है अथवा नहीं, यह चिंता संघ की पहले से, माने डॉक्टर साहब के समय से, रही है। राष्ट्रनीति के बारे में हम पहले से ही मुखर हैं और जितनी शक्ति है, उसका उपयोग करके जैसा होना चाहिए, वैसा हो, यह प्रयास भी हम करते हैं और डंके की चोट पर करते हैं। उसको हमने कभी छिपाया नहीं है। वही आज भी है। चालू राजनीति से हमारा संबंध नहीं है। राष्ट्रनीति से हमारा जरूर संबंध है। उसके बारे में हमारे मत रहते हैं। आज हमारी शक्ति है तो सभी राष्ट्रहित में हो, इसके लिए इस शक्ति का जितना उपयोग हो सकता है, हम जरूर करेंगे। यह जरूर है कि इससे पहले संघ के स्वयंसेवक सत्ता में नहीं रहते थे। अब यह बात जुड़ गई है। यद्यपि संघ केवल संगठन करता है। लेकिन स्वयंसेवक जो करते हैं, वह संघ पर मढ़ा जाता है, और नहीं मढ़ा जाए तो भी थोड़ा-बहुत उत्तरदायी तो संघ है ही, क्योंकि संघ के स्वयंसेवक संघ में ही तैयार हुए हैं। इसके चलते फिर हमको, संबंध कैसे हों, हम कितना विवेक, कितनी बातों का कितना आग्रह करें, यह सब सोचना पड़ता है।
अभी व्यापारियों का सम्मेलन संघ के विषयों को रखने के लिए था, बाद में प्रश्नोत्तरी थी। संघ के बारे में तो ठीक है लेकिन उनको जीएसटी(GST), आयकर, ईज आफ बिजनेस पर पूछना था। सरकार की सारी बातें उन्होंने पूछीं। यह लोग व्यापार से संबंधित सारी शंकाओं के बारे में बात करने लगे। हर बार मैं यही कहता गया कि यह हमारा काम नहीं है। हर बार मैं यह कहता गया कि नीति का सवाल है, लेकिन मानसिकता का भी सवाल है। लेकिन वे लोग तो यही सवाल पूछेंगे। वे पूछते हैं। हमको यहां तक कहना पड़ता है कि ठीक है, आपकी बात हम पहुंचा देंगे। जो राजनीतिक गतिविधियां चलती हैं, उसमें जनता की कोई इच्छा है, कठिनाइयां हैं, जो हमारे पास आता है, वह स्वयंसेवकों के कारण वहां तक पहुंच जाती हैं। स्वयंसेवक सत्ता में नहीं थे, तब भी जो अन्य दलों के सुनते थे, वे थे। आज हैं, कल भी रहेंगे, उन तक हम बात पहुंचाते हैं। प्रणव दा कांग्रेस सरकार में अर्थ मंत्री थे, संघ की दृष्टि से महत्वपूर्ण विषयों पर हम अपनी बात उनके पास पहुंचा देते थे। वे सुनते भी थे। यह हम करते थे। इतनी सी बात है। बाकी हमारा इस चालू राजनीति से कोई संबंध नहीं है।
हिंदू समाज पिछले कुछ वर्षों में हिंदू आस्था, हिंदू विश्वास, हिंदू मूल्य, यहां तक कि उसके प्रतीकों के बारे में ज्यादा मुखर हो गया है। कभी-कभी तो वह आक्रामकता की ओर बढ़ता लगता है। बहुत बार सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को लगता है कि संघ ने अपनी पहले वाली आक्रामकता छोड़ दी है। क्या संघ अब नरम पड़ गया है? क्या समाज में बदलाव होने के कारण संघ ने कोई नीतिगत भूमिका अपनाई है?
हिन्दू समाज लगभग हजार वर्ष से एक युद्ध में है –विदेशी लोग, विदेशी प्रभाव और विदेशी षड्यंत्र, इनसे एक लड़ाई चल रही है। संघ ने काम किया है, और भी लोगों ने काम किया है। बहुत से लोगों ने इसके बारे में कहा है। उसके चलते हिंदू समाज जाग्रत हुआ है। स्वाभाविक है कि लड़ना है तो दृढ़ होना ही पड़ता है। यद्यपि कहा गया है कि निराशी: निर्मम: भूत्वा, युध्यस्व विगत-ज्वर: अर्थात् आशा-कामना को, मैं एवं मेरेपन के भाव को छोड़कर, अपने ममकार के ज्वर से मुक्त होकर युद्ध करो, लेकिन सब लोग ऐसा नहीं कर सकते। लेकिन लोगों ने इसके बारे में समाज को हमारे जरिए जाग्रत किया। जागृति की परंपरा, जिस दिन पहला आक्रमणकारी सिकंदर भारत आया, तब से चालू है। चाणक्य के बाद से अब तक की परंपरा में विभिन्न लोगों ने एक और लड़ाई के प्रति हिन्दू समाज को आगाह किया है। अभी वह जागृत नहीं हुआ है। वह लड़ाई बाहर से नहीं है, वह लड़ाई अंदर से है। तो हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू समाज की सुरक्षा का प्रश्न है, उसकी लड़ाई चल रही है। अब विदेशी नहीं हैं, पर विदेशी प्रभाव है, विदेश से होने वाले षड्यंत्र हैं। इस लड़ाई में लोगों में कट्टरता आएगी। नहीं होना चाहिए, फिर भी उग्र वक्तव्य आएंगे। लेकिन उसी समय अंदर की कुछ हमारी बातें हैं। श्रीराम हमारे स्वाभिमान के प्रतीक(identity) हैं। उनका मंदिर बनना चाहिए। उसका आंदोलन चलता है।
लोग जय श्रीराम कहते हैं। जय श्रीराम कहने से जोश आता है। श्रीराम ने हर जाति-पंथ के लोगों को जोड़ा। लेकिन हमारे यहां अभी भी किसी के डोली पर चढ़ने पर किसी को चाबुक खाने पड़ते हैं। इसको बदलना है या नहीं है? जागृति करने वालों ने, सब लोगों ने कहा है। लेकिन हिन्दू समाज ने क्या उसे ग्रहण किया? हिन्दू समाज (Hindu society) में अभी पूरी जागृति नहीं आयी है, वह आनी पड़ेगी। इसी प्रकार लड़ाई है, लेकिन हम क्या हैं? लड़ाई है, तो शत्रु का विचार करना पड़ता है, शत्रु को समझना पड़ता है। शत्रु को ध्यान में रखना पड़ता है। जैसे हम क्या हैं, हमको कब क्या करना है? आप देखेंगे मुगलों के आक्रमण में अंतिम प्रयोग हुआ शिवाजी महाराज का। उसके बाद इसके प्रयोग चलते रहे। शिवाजी महाराज की नीति कैसी थी? वे शत्रु के बारे में जानते थे, परंतु अपने बारे में भी जानते थे कि कब लड़ना है और कब नहीं लड़ना। सीमाधीश्वर बनने के बाद शिवाजी महाराज ने पड़ोसी मुसलमानों की सत्ता से दोस्ती की। गोलकुंडा जाकर कुतुब शाह को अपना दोस्त बनाया। यह बताकर कि तुम्हारे अमात्यों में दो हिन्दू होने चाहिए। हिन्दू प्रजा की प्रताड़ना बंद होनी चाहिए। और उसने वह मान्य किया। शिवाजी महाराज ने उससे दोस्ती की। शिवाजी महाराज के निर्वाण के पश्चात उसमें जो कट्टरपंथी लोग थे, वे दो मंत्रियों की हत्या करके उसे दूसरी लाइन पर ले गए, यह बात अलग है। लेकिन यह सब शिवाजी महाराज ने किया, क्योंकि वे जानते थे कि शक्ति की स्थिति से जब बात करते हैं तो अच्छी बातें स्वीकार होती हैं। दूसरी बात है कि हिन्दू समाज यदि अपने को जानेगा तो अपना समाधान क्या है, इसे समझेगा।
कट्टर ईसाई कहते हैं कि सारी दुनिया को ईसाई बना देंगे और जो नहीं बनेंगे, उनको हमारी दया पर रहना पड़ेगा या तो मरना पड़ेगा। कट्टर इस्लाम वाले, सारे जो अब्राहमिक विचारधारा रखते हैं, ईश्वर को मानने वाले और नहीं मानने वाले लोग हैं, कम्युनिज्म, कैपिटलिज्म सहित, सब ऐसे ही विचार रखते हैं कि सबको हमारा अनुसरण करना स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि हम ही सही हैं, हमारी दया पर रहो या मत रहो। हम नष्ट कर देंगे। हिन्दू का विश्व दृष्टिकोण क्या है? क्या हिंदू कभी ऐसा कहता है कि सबको हिन्दू मानना पड़ेगा? हमारा ऐसा विचार ही नहीं है। हमारा विचार यह है कि हम सब लोगों के सामने एक उदाहरण पेश करेंगे। सब लोगों से संवाद करेंगे। जिसको अच्छा बनना है, वह हमारा अनुकरण करेगा। नहीं है, तो हम उनका कुछ नहीं करेंगे, लेकिन वह हमारा कुछ न कर सकें, इसकी चिंता तो करनी पड़ेगी। इन सब लड़ाइयों में अब हम सबल हो गए हैं। अब वे हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उन्होंने प्रयास किया। हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता को छेड़ने की ताकत अब किसी में नहीं है। इस देश में हिन्दू रहेगा, हिंदू जाएगा नहीं, यह अब निश्चित हो गया है। हिन्दू अब जागृत हो गया है। इसका उपयोग करके हमें अंदर की लड़ाई में विजय प्राप्त करना, और हमारे पास जो समाधान है, वह प्रस्तुत करना है। आज हम ताकत की स्थिति में हैं, तो हमें वह बात करनी पड़ेगी क्योंकि अगर अभी नहीं, लेकिन पचास साल बाद हमें यह करना पड़ेगा। पचास साल बाद हम कर सकें, इसलिए अभी से कुछ बनाना पड़ेगा।
आज चीन ने अपनी जो ताकत बढ़ाई है, उसकी योजना 1948 में बनी थी, उसके अनुसार वह जा रहे हैं, तो हमको भी अपनी ताकत की स्थिति में आज कौन सी पहल करनी है, जिससे आगे जा सकें, यह ध्यान रखना होगा। यह कार्रवाई नहीं है, लेकिन हमेशा लड़ाई के मोड में रहेंगे, तो कोई फायदा नहीं है। राष्ट्रीय जीवन में सब प्रसन्न रहते हैं। लड़ना जिनको आता है, वह सब कर लेते हैं, ऐसा भी नहीं है। गैरीबॉल्डी ने लड़ाई लड़ी, लड़ाई होने के बाद उसने कहा कि अब आगे का काम मैं नहीं करता, दूसरों को बताओ। और अंत में राजा बनना था, तो उसने कहा कि मैं नहीं बन सकता, किसी अन्य को बनाओ। तो हमें भी समाज को इन अवस्थाओं के अनुसार अपनी बोलचाल, भाषा को रखना पड़ेगा। दिशा वही है, हिंदुस्थान हिंदू राष्ट्र है और परम वैभव संपन्न, सामर्थ्य संपन्न, हिंदू समाज, परम वैभव संपन्न हिंदू राष्ट्र भारत दुनिया का मार्गदर्शन करेगा। यह करना है तो कैसे करना है? लड़ाई करनी है तो लड़ाई करेंगे, वह हमारी मर्जी है। दूसरे चुनौती दे रहे हैं, इसलिए हम नहीं करेंगे। हम लड़ाई अपनी योजना से करेंगे – यह हिंदू समाज को सोचना है।
एक सांस्कृतिक संगठन के तौर पर संघ की जो छवि है, उसमें आधुनिक विमर्श के जो मुद्दे हैं – उसमें तकनीक भी है, पर्यावरण भी है और जेंडर बहस भी है- इन सब पर संघ को आप कहां पाते हैं?
दुनिया में पश्चिम का ही वर्चस्व अब तक था, इसलिए वही आगे थे। वही नेतृत्व करते थे, वही डिस्कोर्स तय करते थे और वही उपाय करते थे कि यही उपाय है, इसको करो। वे नेतृत्व करते थे। उनके पीछे हमारे सहित सब लोग थे। अब उनका नेतृत्व विफल हो गया है। सब विचार करने के बाद, अपनी विफलता को समझने के बाद वह पर्यावरण पर आते हैं। सब लोग भारतीय विचार के साथ आ रहे हैं, हिंदू विचार के साथ आ रहे हैं। ऐसे ही जेंडर के बारे में, महिलाओं का प्रश्न है, तो स्त्री मुक्ति, नारीशक्ति का नारा चल रहा है। अब पांच दौर में जाने के बाद, परस्पर पूरकता के, पारिवारिक जीवन की आवश्यकता के मुद्दे पर पश्चिम का नारी जगत, नारी नेतृत्व वापस आ रहा है। यानी हमारे विचार पर आ रहा है। ऐसे ही तकनीकी के बारे में अभी बड़ा विवाद चला है कि फ्री टेक्नोलॉजी या टेक्नोलाजी विद एथिक्स, अनरेस्ट्रिक्टेड टेक्नोलॉजी या टेक्नोलॉजी विद ह्यूमन ऐटीट्यूड। टेक्नोलॉजी की कल्पना से किसे क्या करना है? सारी टेक्नोलॉजी दुनिया में आती रहेगी और दुनिया आगे बढ़ती रहेगी। जेंडर और पर्यावरण, यह सनातन हैं। लेकिन पूर्ण जीवन को जो समझता है, वही उसका उत्तर दे सकता है। भारत जीवन की पूर्णता को समझता है। उसमें वह फ्रैगमेंट्स भी हैं, जो पश्चिम की सोच ने उत्पन्न किए हैं कि व्यक्ति अलग है, परिवार अलग है। यह बांट कर देखते हैं, भारत को यह भी पता है और उसको कैसे जोड़ना है, यह भी पता है। इसलिए आज का डिस्कोर्स भी बदल रहा है, जो भारत के डिस्कोर्स की ओर आ रहा है। जब यह नहीं था, तब भी हमने भारतीय डिस्कोर्स का समर्थन किया है। टैगोर, गांधी जी, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, इन सबको लेकर हम आगे बढ़े। आधुनिक जगत में, इन सब बातों के बारे में भी विचार है, उसका अध्ययन करना चाहिए। संघ का कहना कुछ अलग नहीं है।
नई-नई तकनीकी आती जाएगी। लेकिन तकनीकी मनुष्यों के लिए है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को लेकर लोगों को डर लगने लगा है वह अगर अनरेस्ट्रिक्टेड रहा तो कल मशीनों का राज हो जाएगा। लोगों को अब यह सोचना ही पड़ेगा। संघ का कोई अलग दृष्टिकोण नहीं है। हिंदू परंपरा ने इन बातों पर विचार किया है।
अभी छोटे से प्रश्न बीच-बीच में आते हैं, जिसको मीडिया बहुत बड़ा बनाता है, क्योंकि वह तथाकथित नियो-लेफ्ट को पुरोगामी लगता है। तृतीयपंथी लोग समस्या नहीं हैं। उनका अपना सेक्ट है, उनके अपने देवी-देवता हैं। अब तो उनके महामंडलेश्वर भी हैं। कुम्भ में भी उनको स्थान मिलता है। वह जन-जीवन का हिस्सा हैं, घर में जन्म होता है तो वह गाना गाने के लिए आते हैं। परंपराओं में उनको समाहित कर लिया है। उनका एक अलग जीवन भी चलता है और सारे समाज के साथ कहीं न कहीं जुड़ कर भी वे काम करते हैं। हमने कभी इसका हवाला नहीं दिया। इसको एक अंतरराष्ट्रीय संवाद का विषय नहीं बनाया है।
इसी प्रकार एलजीबीटी (LGBT) का प्रश्न है। जरासंध के दो सेनापति थे हंस और डिंभक। दोनों इतने मित्र थे कि कृष्ण ने अफवाह फैलाई कि डिंभक मर गया, तो हंस ने आत्महत्या कर ली। दो सेनापतियों को ऐसे ही मारा। यह क्या था? यह वही चीज है। दोनों में वैसे संबंध थे। मनुष्यों में यह प्रकार पहले से है। जब से मनुष्य आया है, तब से है। मैं जानवरों का डॉक्टर हूं, तो जानता हूं कि जानवरों में भी यह प्रकार होता है। यह बाइलॉजिकल है। लेकिन उसका बहुत हो-हल्ला है। उनको भी जीना है। उनका अलग प्रकार है। उसके अनुसार उनको एक अलग निजी जगह भी मिले और सारे समाज के साथ हम भी हैं, ऐसा भी उनको लगे। इतनी साधारण सी बात है। हमारी परंपरा में इसकी व्यवस्था बिना हो-हल्ले होती है। हम करते आए हैं। हमको ऐसा विचार आगे करना पड़ेगा। क्योंकि बाकी बातों से हल निकला नहीं और न ही निकलने वाला है। इसलिए संघ अपनी परंपरा के अनुभव को भरोसेमंद मानकर विचार करता है।
एक प्रश्न समाज के सामने है। संघ ने उसे रेखांकित किया है, और एक मुद्दा उठाया है। वह है जनसंख्या नीति और जनसंख्या असंतुलन का। यह एक जटिल विषय है। इस पर आम सहमति कैसे बनेगी और विशेषकर तब, जब कुछ लोग इसे हिंदू-मुस्लिम से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
पहले हिन्दू को यह समझ में आए। हिंदू आज बहुमत में है। हिन्दू इस देश का है। हिंदू के उत्थान से इस देश के सब लोग सुखी होंगे। हिन्दू पहले समझे। जनसंख्या एक बोझ भी है, जनसंख्या एक उपयोगी चीज भी है। तो जैसा उस भाषण में मैंने कहा, वैसी दूरगामी और गहरा सोचकर एक नीति बननी चाहिए। नीति सब पर समान रूप से लागू होनी चाहिए। लेकिन इसके लिए जबरदस्ती से काम नहीं चलता है। इसके लिए शिक्षित करना पड़ेगा। जनसंख्या असंतुलन अव्यवहार्य बात है। जहां असंतुलन हुआ, वहां देश टूटा। ऐसा सारी दुनिया में हुआ और वह इसलिए कि दुनिया में लोगों की प्रवृत्ति, सभ्यताओं की प्रवृत्ति आक्रामक है। एकमात्र हिंदू समाज है, जो आक्रामक नहीं है। इसलिए अनाक्रामकता, अहिंसा, लोकतंत्र, सेक्युलरिज्म, यह सब बचाए रहना है, तो जिनकी प्रवृत्ति अनाक्रामकता की है, उनका बचा रहना आवश्यक है। तिमोर, सूडान को हमने देखा, पाकिस्तान हुआ, हमने देखा। क्यों हुआ? राजनीति छोड़ दें। खुश करने की बात छोड़ दें। निरपेक्ष होकर, तटस्थ विचार करें, पाकिस्तान क्यों हुआ? जब से इतिहास में आंखें खुलीं, तब से यह भारत अखंड था। इस्लाम का भयंकर आक्रमण कुछ सौ साल के बाद समाप्त हो गया। फिर अंग्रेजों के जाने के बाद यह देश कैसे टूटा, तीन सौ साल के बाद?
एक मात्र कारण है, हिन्दू भाव। जब कहा गया- आयी विपद महाभय, टूटे धरती खोये। इसमें किसी के विरोध की बात नहीं है। उसके पहले ऐसे कत्लेआम भारत में नहीं हुए हैं। कलिंग युद्ध की बात करते हैं, तो एक भाग में छोटा सा हुआ, उसके बाद बंद हुआ। यह सब हमको इसलिए भुगतना पड़ा कि हिन्दू भाव को भूल गए। हिंदू भाव कहने से इस्लाम की पूजा को कोई बाधा नहीं है।
हिन्दू हमारी पहचान है, राष्ट्रीयता है, हिन्दू हमारी प्रवृति है। सबको अपना मानने की, सबको साथ लेकर चलने की प्रवृति। मेरा ही सही, तुम्हारा गलत, ऐसा नहीं है। तुम्हारे जगह, तुम्हारा ठीक, मेरी जगह मेरा ठीक। झगड़ा क्यों करें, मिलकर चलें। यही हिन्दुत्व है। उसके मानने वाले लोगों की संख्या बनी रहती है, तो भारत एक रहता है। वह भारत दुनिया को एकता की ओर ले जाता है। यह केवल भारत की बात नहीं है, मानव कल्याण की बात है। आप कल्पना करें कि अगर हिन्दू समाज गायब हो जाता है, तो क्या होगा? सब लोग झगड़ा करेंगे कि दुनिया पर किसका प्रभुत्व हो। अब गारंटी किससे है? गारंटी हिन्दू से है। हिन्दुस्थान, हिन्दुस्थान बना रहे, सीधी सी बात है। इसमें आज हमारे भारत में जो मुसलमान हैं, उनको कोई नुकसान नहीं। वह हैं। रहना चाहते हैं, रहें। पूर्वजों के पास वापस आना चाहते हैं, आएं। उनके मन पर है। हिन्दुओं में यह आग्रह है ही नहीं। इस्लाम को कोई खतरा नहीं है। हां, हम बड़े हैं, हम एक समय राजा थे, हम फिर से राजा बनें, यह छोड़ना पड़ेगा। हम सही हैं, बाकी गलत, यह सब छोड़ना पड़ेगा। हम अलग हैं, इसलिए अलग ही रहेंगे। हम सबके साथ मिलकर नहीं रह सकते, यह छोड़ना पड़ेगा। किसी को भी छोड़ना पड़ेगा। ऐसा सोचने वाला कोई हिन्दू है, उसको भी छोड़ना पड़ेगा। कम्युनिस्ट है, उनको भी छोड़ना पड़ेगा।
इसलिए जनसंख्या असंतुलन एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। उसका विचार करना चाहिए। और ऐसा मैं कहूं तो बहुत लोग कुछ-कुछ कहेंगे। परंतु देश का शासन तंत्र चलाते समय जब लोग वहां जाकर बैठते हैं, तो बिल्कुल यही करते हैं। स्वतंत्र भारत के सरकारी क्रियाकलाप, तब से अभी तक देख लीजिए। सत्ता में बैठने वाला कैसी पूजा करता है, इससे कोई फर्क ाहीं पड़ता। वह भारत का सत्ताधारी है और भारत का हित चाहता है, तो वह इसको देखता है और इसमें जो करना है, उसको करना है। इसलिए जो बात सबको पता है, उसे हम खुद ही साफ साफ कह रहे हैं। हमें किसी का विरोध नहीं करना है। इसमें जन्मदर की बात नहीं है, मतांतरण और घुसपैठियों से ज्यादा असंतुलन होता है। उसको रोकने से असंतुलन नष्ट हो जाता है, यह भी हमने देखा है। इसलिए जनसंख्या नीति में यह संतुलन रहेगा और जहां यह नहीं है, वहां जन्मदर के कारण बहुत कम रहेगा। बाकी बात रहेगी उसका भी बंदोबस्त करना पड़ेगा। यह सब महत्वपूर्ण बातें है।
वैश्विक संदर्भ में हिन्दू मानवाधिकार (Hindu Human Rights) का प्रश्न निकल कर आ रहा है। हिन्दू समाज के प्रश्न केवल भारत के नहीं हैं। भारत के बाहर भी हिंदू समाज अब अपने अधिकारों के प्रति ज्यादा जागृत है। अमेरिका में कुछ जगहों पर हिन्दू मंदिर, ट्रस्ट, इन विषयों को लेकर प्रस्ताव पारित हुए। हिंदुत्व के विषय को लेकर कांफ्रेंसेज में कहा गया कि भारत में संघ के विचारों के कारण आक्रामकता पूरे समाज में बढ़ गई है। दूसरी तरफ, हम यूरोप में देख रहे हैं बर्मिंघम, लिएस्टर जैसी स्थिति, जहां संघ का नाम लेकर हिन्दुओं पर आक्रमण हो रहे हैं। क्या संघ की तरफ से भी इस धारणा का प्रत्युत्तर देने के कुछ प्रयास हो रहे हैं? इसके बारे में कुछ विचार वैश्विक स्तर पर हिंदू ह्यूमन राइट्स के बारे में, हिन्दूफोबिया को लेकर।
हिन्दुओं के बारे में काम करने वाले अनेक लोग हैं। एक और अलग धड़ा बनाने का विचार नहीं है। हम उनको ही मजबूत करेंगे। हिन्दू समाज जाग रहा है, तो इस चरण से गुजरना है। हिंदू समाज जाग रहा है, इस कारण जिनके स्वार्थ की दुकान बंद होती है, वे लोग हो-हल्ला कर रहे हैं। वही लोग आक्रमण कर रहे हैं। लेकिन अब हिन्दू जाग रहा है, तो इसको देख लेगा। यह निश्चित है कि हिन्दू जो रास्ता निकालेगा, उसमें सब साथ मिलकर ही चलेंगे। इस आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए जो लोग काम करते हैं, उनके पीछे दुनिया भर का हिन्दू समाज है। और वही स्थिति बनी रहे और बढ़ती रहे, संघ यह देखेगा। परसेप्शन के प्रश्न पर कुछ करना पड़ेगा। परसेप्शन की समस्या विश्व के लिए ही नहीं, भारत के लिए भी है। उस दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं। हमने अपना मीडिया इंटेरेक्शन बनाया, कुछ उपक्रम भी शुरू किए हैं। इसका विस्तार होना है। करेंगे निश्चित, कब करेंगे, यह देखना है।
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